योग एवं मानसिक स्वास्थ्य - इकाई 4
प्रार्थना, प्रकार, मन पर प्रभाव, दैनिक जीवन में महत्व-:
प्रार्थना का तात्पर्य प्रार्थना मनुष्य के मन की समस्त विश्रृंखलित एवं अनेक दिशाओं में बहकने वाली प्रवृत्तियों को एक केन्द्र पर एकाग्र करने वाले मानसिक व्यायाम का नाम है। चित्त की समग्र भावनाओं को मन के केन्द्र में एकत्र कर चित्त को दृढ़ करने की एक प्रणाली का नाम ‘प्रार्थना’ है। अपनी इच्छाओं के अनुरूप अभीश्ट लक्ष्य प्राप्त कर लेने की क्षमता मनुष्य को (प्रकृति की ओर से ) प्राप्त है। भगवतगीता 17/3 के अनुसार –
वर्तमान में प्रार्थना को गलत समझा जा रहा है। व्यक्ति अपनी भौतिक सुविधओं व स्वयं को विकृत मानसिकता के कारण उत्पन्न हुए उलझावों से बिना किसी आत्म सुधार व प्रयास के ईश्वर से अनुरोध करता है। इसी भाव को वह प्रार्थना समझता है जो कि एक छल है, भ्रम है अपने प्रति भी व परमात्म सत्ता के लिये भी। अत: स्वार्थ नहीं परमार्थ, समस्याओं से छुटकारा नहीं उनका सामना करने का सामथ्र्य, बुद्धि नहीं हृदय की पुकार, उथली नहीं गहन संवेदना के साथ जब उस परमपिता परमात्मा को उसका साथ पाने के लिए आवाज लगायी जाती है उस स्वर का नाम प्रार्थना है।
गांधी जी कहते थे – ‘‘हम प्रभु से प्रार्थना करें- करुणापूर्ण भावना के साथ और उसने एक ही याचना करें कि हमारी अन्तरात्मा में उस करुणा का एक छोटा सा झरना प्रस्फुटित करें जिसमें वे प्राणिमात्र को स्नान कराके उन्हें निरंतर सुखी, समृद्ध और सुविकसित बनाते रहते हैं।’’
प्रार्थना का मन पर प्रभाव-
ईश्वर प्रार्थना सुनते हैं तथा उसे पूर्ण करते हैं। इसमें किंचित भी संदेह नहीं है। टेलिफोन के रिसीवर की तरह प्रार्थना साधन से सैकड़ों मील की दूरी पर बैठे हुए किसी हृदय से अपना सम्बन्ध जोड़ लेते हैं। प्रार्थना के लिए सच्ची निष्ठा, पूर्ण श्रद्धा एवं जीता-जागता विश्वास अपेक्षित है। साकार या निराकार, सगुण अथवा निर्गुण के व्यर्थ बकवास में मत पड़ो। सच्चे आत्म-निवेदन द्वारा तुम आत्म-निवेदन के योग्य बन सकते हो। उसी के द्वारा तुम अपने शरीर की सीमाओं को उल्लंघन करके अध्यात्म मार्ग पर आरूढ़ हो सकोगे और परमात्मा का सजीव स्पर्श कर सकोगे। ईश्वर द्वारा हमें प्रत्येक वस्तु मिलेगी यह विश्वास हमारी प्रार्थना को अनुप्राणित करता रहे। यह विश्वास ही मनुष्य की आत्मा की चिर-सम्पत्ति है। बिना इन श्रद्धा के हमारी आवश्यक पोशण नहीं पा सकती।
निष्काम प्रार्थना से मनुष्य को आन्तरिक शान्ति प्राप्त होती है, मन की कल्मश धुलती है, दैवी सम्पदा की वृद्धि होती है, आत्मबल बढ़ता है, तथा आत्म-ज्ञान प्राप्त होता है। आत्म-ज्ञान ही मनुष्य के जीवन का सर्वोच्च फल है किन्तु मोहवश मनुष्य सकाम प्रार्थना में ही अटका रहता है और अन्त समय उसे बड़ा पश्चाताप होता है।
एकान्त में बैठकर करुण भाव से और गद्गद् वाणी से भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘हे परमेश्वार! मैं आपकी हृदय से समृति चाहता हूँ। जब सर्वशक्तिमान् सर्वाधार, सर्वलकमहेश्वर भगवान् सबके प्रेरक सर्वान्तर्यामी और सबके परम सुहृद हैं, तो आप मेरे भी सब कुछ हैं। मैं अपने मन, बुद्धि, शरीर, इन्द्रिय, प्राण और समस्त धनादि को आपको अर्पण करना चाहता हूँ। हे देवाधिदेव! वही मुझे प्रदान कीजिए। तात्पर्य यह है कि इस सिद्धान्त के अनुसार प्रार्थी किसी भी जीव से न तो द्वेष रख सकता है, न स्वार्थ में अन्धा होकर संकुचित ही रह सकता है, ममता एवं अहंकार की दुर्द्धर्श विभीशिकाओं से भी बच सकता है।
हममें से प्रत्येक का कर्त्तव्य है कि प्रात:काल सूर्योदय के पूर्व जागृत हो कुछ अपने हृदयस्थ आत्मा से परमपिता परमात्मा का साक्षात्कार करे और अपना रोम-रोम पवित्र कर ले। शान्ति को प्रवाहित होने दे। विशुद्ध हृदय से महाप्रभु के अनन्त उपकारों का आभार मान कर समग्र प्राणीमात्र के जीवन, आनन्द, सुख वृद्धि के लिए प्रार्थना करे। इस निर्मल विशुद्ध उपासना से परमात्मा का दिव्य स्पर्श आपकी आत्मा को होगा। आपके समस्त मनस्ताप और क्लेश भस्मीभूत होकर नवजीवन और नवीन बल प्राप्त होगा और जीवन परम शान्ति और सुखी होगा। यह क्लेशों से मुक्ति का सुगम उपाय है। यही प्रार्थना का रहस्य है।
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प्रार्थना, प्रकार, मन पर प्रभाव, दैनिक जीवन में महत्व-:
प्रार्थना का तात्पर्य प्रार्थना मनुष्य के मन की समस्त विश्रृंखलित एवं अनेक दिशाओं में बहकने वाली प्रवृत्तियों को एक केन्द्र पर एकाग्र करने वाले मानसिक व्यायाम का नाम है। चित्त की समग्र भावनाओं को मन के केन्द्र में एकत्र कर चित्त को दृढ़ करने की एक प्रणाली का नाम ‘प्रार्थना’ है। अपनी इच्छाओं के अनुरूप अभीश्ट लक्ष्य प्राप्त कर लेने की क्षमता मनुष्य को (प्रकृति की ओर से ) प्राप्त है। भगवतगीता 17/3 के अनुसार –
यच्छ्रद्ध: स एव स:
अर्थात- जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह वैसा
ही बन जाता है।
ईसाई
धर्मग्रंथ बाईबिल
में
कहा
गया
है
–
जो माँगोगे वह
आपको
दे
दिया
जाऐगा।
जो खोजोगे
वह
तुम्हें प्राप्त हो
जाएगा।
खटखटाओगे तो
आपके
लिए
द्वार
खुल
जाएगा।।
स्पष्ट
है
कि
प्रार्थना के
द्वारा
जन्मजात प्रसुप्त आध्यत्मिक शक्तियाँ मुखर
की
जा
सकती
है।
इन
शक्तियों को
यदि
सदाचार
तथा
सद्विचार का
आधार
प्राप्त हो
तब
व्यक्ति संतवृत्ति (साधुवृत्ति) का
बन
जाता
है।
इसके
विरूद्ध इन्हीं
शक्तियों का
दुरूपयोग कर
व्यक्ति दुश्ट
वृत्ति
का
बन
सकता
हैं।
शैतान
और
भगवान
की
संकल्पना इसीलिए
तो
रूढ़
है।
मनुष्य
में
इतनी शक्ति है कि स्वयं का उद्धार स्वयं का सकता है। गीता 6/5 में भी यही कहा गया है –
इतनी शक्ति है कि स्वयं का उद्धार स्वयं का सकता है। गीता 6/5 में भी यही कहा गया है –
‘‘उद्धरेत्
आत्मना आत्मानम्’’
इस
प्रकार
यह
स्वयमेव सिद्ध
हो
जाता
है
कि
प्रार्थना भिक्षा
नहीं,
बल्कि
शक्ति
अर्जन
का
माध्यम
है,
प्रार्थना करने
के
लिए
सबल
सक्षम
होना
महत्व
रखता
है।
प्रार्थना परमात्मा के प्रति की गई एक आर्तपुकार है। जब यह पुकार द्रौपदी, मीरा, एवं प्रहलाद के समान हृदय से उठती है तो भावमय भगवान दौड़े चले आते हैं। जब भी हम प्रार्थना करते हैं तब हर बार हमें अमृत की एक बूंद प्राप्त होती है जो हमारी आत्मा को तृप्त करती है। गाँधी जी ने जीवन में प्रार्थना को अपरिहार्य मानते हुए इसे आत्मा का खुराक कहा है। प्रार्थना ऐसा कवच या दुर्ग है जो प्रत्येक भय से हमारी रक्षा करता है। यही वह दिव्य रथ है जो हमें सत्य, ज्योति और अमृत की प्राप्ति कराने में समर्थ है।
प्रार्थना परमात्मा के प्रति की गई एक आर्तपुकार है। जब यह पुकार द्रौपदी, मीरा, एवं प्रहलाद के समान हृदय से उठती है तो भावमय भगवान दौड़े चले आते हैं। जब भी हम प्रार्थना करते हैं तब हर बार हमें अमृत की एक बूंद प्राप्त होती है जो हमारी आत्मा को तृप्त करती है। गाँधी जी ने जीवन में प्रार्थना को अपरिहार्य मानते हुए इसे आत्मा का खुराक कहा है। प्रार्थना ऐसा कवच या दुर्ग है जो प्रत्येक भय से हमारी रक्षा करता है। यही वह दिव्य रथ है जो हमें सत्य, ज्योति और अमृत की प्राप्ति कराने में समर्थ है।
हमारा
जीवन
हमारे
विश्वासों का
बना
हुआ
है।
यह
समस्त
संसार
हमारे
मन
का
ही
खेल
है-
‘‘जैसा
मन
वैसा
जीवन’’। प्रार्थना एक
महान
ईच्छा,
आशा
और
विश्वास है।
यह
शरीर,
मन
व
वाणी
तीनों
का
संगम
है।
तीनों
अपने
आराध्य
देव
की
सेवा
में
एकरूप
होते
हैं,
प्रार्थना करने
वालों
का
रोम-रोम प्रेम से
पुलकित
हो
उठता
है।
प्रार्थना की परिभाषा
- हितोपदेश :- ‘‘स्वयं के दुगुर्णों का चिंतन व परमात्मा के उपकारों का स्मरण ही प्रार्थना है। सत्य क्षमा, संतोष, ज्ञानधारण, शुद्ध मन और मधुर वचन एक श्रेष्ठ प्रार्थना है।’’
- पैगम्बर हजरत मुहम्मद – ‘‘प्रार्थना (नमाज) धर्म का आधार व जन्नत की चाबी है।’’
- श्री माँ – ‘‘प्रार्थना से क्रमश: जीवन का क्षितिज सुस्पष्ट होने लगता है, जीवन पथ आलोकित होने लगता है और हम अपनी असीम संभावनाओं व उज्ज्वल नियति के प्रति अधिकाधिक आश्वस्त होते जाते हैं।’’
- महात्मा गांधी – ‘‘प्रार्थना हमारी दैनिक दुर्बलताओं की स्वीकृति ही नहीं, हमारे हृदय में सतत् चलने वाला अनुसंधान भी है। यह नम्रता की पुकार है, आत्मशुद्धि एवं आत्मनिरीक्षण का आह्वाहन है।’’
- श्री अरविंद घोष – ‘‘यह एक ऐसी महान क्रिया है जो मनुष्य का सम्बन्ध शक्ति के स्त्रोत पराचेतना से जोड़ती है और इस आधार पर चलित जीवन की समस्वरता, सफलता एवं उत्कृष्टता वर्णनातीत होती है जिसे अलौकिक एवं दिव्य कहा जा सकता है।’’
- सोलहवीं शताब्दी के स्पेन के संत टेरेसा के अनुसार प्रार्थना –’’प्रार्थना सबसे प्रिय सत्य (ईश्वर) के साथ पुनर्पुन: प्रेम के संवाद तथा मैत्री के घनिश्ठ सम्बन्ध हैं।’’
- सुप्रसिद्ध विश्वकोष Brittanica के अनुसार प्रार्थना की परिभाषा – सबसे पवित्र सत्य (ईष्वर) से सम्बन्ध बनाने की इच्छा से किया जाने वाला आध्यात्मिक प्रस्फूटन (या आध्यात्मिक पुकार) प्रार्थना कहलाता है।
वर्तमान में प्रार्थना को गलत समझा जा रहा है। व्यक्ति अपनी भौतिक सुविधओं व स्वयं को विकृत मानसिकता के कारण उत्पन्न हुए उलझावों से बिना किसी आत्म सुधार व प्रयास के ईश्वर से अनुरोध करता है। इसी भाव को वह प्रार्थना समझता है जो कि एक छल है, भ्रम है अपने प्रति भी व परमात्म सत्ता के लिये भी। अत: स्वार्थ नहीं परमार्थ, समस्याओं से छुटकारा नहीं उनका सामना करने का सामथ्र्य, बुद्धि नहीं हृदय की पुकार, उथली नहीं गहन संवेदना के साथ जब उस परमपिता परमात्मा को उसका साथ पाने के लिए आवाज लगायी जाती है उस स्वर का नाम प्रार्थना है।
गांधी जी कहते थे – ‘‘हम प्रभु से प्रार्थना करें- करुणापूर्ण भावना के साथ और उसने एक ही याचना करें कि हमारी अन्तरात्मा में उस करुणा का एक छोटा सा झरना प्रस्फुटित करें जिसमें वे प्राणिमात्र को स्नान कराके उन्हें निरंतर सुखी, समृद्ध और सुविकसित बनाते रहते हैं।’’
प्रार्थना का मन पर प्रभाव-
1. प्रार्थना का प्रथम तत्त्व – विश्वास एवं श्रद्धा
2. प्रार्थना का द्वितीय तत्त्व – एकाग्रता
3. प्रार्थना का तृतीय तत्त्व – सृजनात्मक ध्यान
4. प्रार्थना का चतुर्थ तत्त्व – आत्म निवेदन
प्रार्थना के प्रकार-:
1.
समूह
प्रार्थना
2.
सकाम
प्रार्थना
3.
निष्काम
प्रार्थना
4.
सामुदायिक
प्रार्थना
5.
आशावादी
प्रार्थना
6.
स्वेच्छा
स्वीकार
7.
सिफारिशी
प्रार्थना
समूह प्रार्थना
प्रार्थना के अन्य भेदों में सकाम तथा निष्काम प्रार्थना है। इन दोनों में कौन सी अधिक महत्त्वपूर्ण है यह निर्णय करने से पूर्व हमें इनका विभिन्न स्वरूप समझना चाहिए। पाश्चात्य देशों में सर्वत्र सकाम प्रार्थना का प्रचार है। इसके विपरीत प्राचीन आर्यों में निष्काम प्रार्थना का ही अधिक महत्व था।सकाम प्रार्थना
नाम से ही स्पष्ट है कि किसी इच्छा, कामना की पूर्ति हेतु जब ईश्वर को याद किया जाता है, वह सकाम प्रार्थना है। आज इसी का प्रचलन अधिक है। सकाम प्रार्थना से कामनाएँ पूर्ण होती है, जिन वस्तुओं के लिए आग्रह किया जाता है, उनकी प्राप्ति होती है। इस बात को सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण समय-समय पर ‘युनिटी’ नामक अमेरिकन पत्रिका में प्रकाशित होते रहते हैं। यदि इन सब प्रार्थनाओं का संग्रह किया जाए, तो एक स्वतन्त्र पुस्तक तैयार हो सकती है। अतएव हम यही निर्देश करेंगे कि जिस वस्तु के लिए विधिपूर्वक, सच्चे हृदय से प्रार्थना की जाती है वह अवश्यमेव प्राप्त होती है।ईश्वर प्रार्थना सुनते हैं तथा उसे पूर्ण करते हैं। इसमें किंचित भी संदेह नहीं है। टेलिफोन के रिसीवर की तरह प्रार्थना साधन से सैकड़ों मील की दूरी पर बैठे हुए किसी हृदय से अपना सम्बन्ध जोड़ लेते हैं। प्रार्थना के लिए सच्ची निष्ठा, पूर्ण श्रद्धा एवं जीता-जागता विश्वास अपेक्षित है। साकार या निराकार, सगुण अथवा निर्गुण के व्यर्थ बकवास में मत पड़ो। सच्चे आत्म-निवेदन द्वारा तुम आत्म-निवेदन के योग्य बन सकते हो। उसी के द्वारा तुम अपने शरीर की सीमाओं को उल्लंघन करके अध्यात्म मार्ग पर आरूढ़ हो सकोगे और परमात्मा का सजीव स्पर्श कर सकोगे। ईश्वर द्वारा हमें प्रत्येक वस्तु मिलेगी यह विश्वास हमारी प्रार्थना को अनुप्राणित करता रहे। यह विश्वास ही मनुष्य की आत्मा की चिर-सम्पत्ति है। बिना इन श्रद्धा के हमारी आवश्यक पोशण नहीं पा सकती।
निष्काम प्रार्थना
हमारे प्राचीन मनीशियों, ऋशियों, आर्यों ने निष्काम प्रार्थना को ही सर्वोत्तम माना है तथा उसकी महिमा का गुणगान किया है। ईश्वर के शरणागत होकर निष्काम (अर्थात बिना किसी इच्छा अथवा कामना के) और प्रेम भव से उसके नाम का अभ्यास करना, बिल्कुल स्वार्थ रहित होकर मानस पूजा करना उनकी दृष्टि में बड़ा उत्तम है। वे अपने जीवन निर्वाह की समस्त चिन्ताएँ ईश्वर पर छोड़ देते थे। निष्काम प्रार्थना में ही वास्तविक शान्ति प्राप्त होती है। सकाम प्रार्थना में तो यह इच्छा बनी रहती हैकि कुछ प्राप्ति होगी, फल मिलेगा, यह होगा वह होगा, किन्तु निष्काम में मन शान्त हो जाता है। निष्काम भाव से और गुप्त रीति से की हुई प्रार्थना का फल अल्पकाल में ही मिल जाता है। साधक अहंकार रहित होकर अपना स्वार्थ भगवान का समर्पित कर देता है अर्थात अपनी इच्छाओं को उनमें विलीन कर देता है। जिस प्रार्थी ने कामना, इच्छा, स्वार्थ को तिलांजलि देकर निष्काम प्रार्थना का आश्रय ग्रहण किया है, वह जब प्रार्थना में ध्यानावस्थित होता है, तो अपने भीतर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को उसके वास्तविक रूप में देखता है। उस समय उसे आत्मा की पूर्णता का भी ज्ञान हो जाता है और वह ईश्वरीय नियम की समता को भी देखता है। उसे विदित हो जाता है कि ईश्वर ने मनुष्य तथा सृष्टि को सर्वांगपूर्ण बनाया है।निष्काम प्रार्थना से मनुष्य को आन्तरिक शान्ति प्राप्त होती है, मन की कल्मश धुलती है, दैवी सम्पदा की वृद्धि होती है, आत्मबल बढ़ता है, तथा आत्म-ज्ञान प्राप्त होता है। आत्म-ज्ञान ही मनुष्य के जीवन का सर्वोच्च फल है किन्तु मोहवश मनुष्य सकाम प्रार्थना में ही अटका रहता है और अन्त समय उसे बड़ा पश्चाताप होता है।
एकान्त में बैठकर करुण भाव से और गद्गद् वाणी से भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘हे परमेश्वार! मैं आपकी हृदय से समृति चाहता हूँ। जब सर्वशक्तिमान् सर्वाधार, सर्वलकमहेश्वर भगवान् सबके प्रेरक सर्वान्तर्यामी और सबके परम सुहृद हैं, तो आप मेरे भी सब कुछ हैं। मैं अपने मन, बुद्धि, शरीर, इन्द्रिय, प्राण और समस्त धनादि को आपको अर्पण करना चाहता हूँ। हे देवाधिदेव! वही मुझे प्रदान कीजिए। तात्पर्य यह है कि इस सिद्धान्त के अनुसार प्रार्थी किसी भी जीव से न तो द्वेष रख सकता है, न स्वार्थ में अन्धा होकर संकुचित ही रह सकता है, ममता एवं अहंकार की दुर्द्धर्श विभीशिकाओं से भी बच सकता है।
सामुदायिक प्रार्थना
सम्पूर्ण विश्व के साथ हम हैं, उसकी भलाई, उसकी प्रसन्नता ही सर्वोपरि है- यह भाव लेकर की गई प्रार्थना सामुदायिक प्रार्थना है, इसके परिणाम बहुत सकारात्मक होते हैं। प्रार्थना व्यक्तिगत एवं सामुदायिक दोनों प्रकार से की जा सकती है। व्यक्तिगत प्रार्थना से हम केवल अपनी भलाई की भावनाएँ प्रकट करते हैं। अपने तक ही सब कुछ परिमित रखते हैं, यह दृष्टिकोण कुछ संकुचित सा है। अकेले-अकेले केवल अपनी भलाई के लिए प्रार्थना करने में वह शक्ति नहीं जो सामूहिक प्रार्थना में होती है। वेदों में जहाँ भी प्रार्थना संबंधी ऋचाएँ और मन्त्र दिए गए हैं, उक्त वैदिक प्रार्थनाओं में एक व्यक्ति के लिए नहीं, किन्तु समुदाय के लिए, सब समाज के लिए, राष्ट्र के अभ्युत्थान के निमित्त, विश्व के कल्याण के लिए प्रार्थनाएँ की गई हैं। विश्व की भलाई में हमारी भलाई सम्मिलित है। सम्पूर्ण विश्व के साथ हम हैं यह भाव लेकर की गई प्रार्थना उच्चता है। वेदों का मूल मन्त्र गायत्री है। उस गायत्री मन्त्र में ‘‘धियो यो न: प्रचोदयात्’’ का अर्थ वही है कि जिस सर्वश्रेष्ठ आनन्ददायक तेज से सब विश्वव्याप्त हो रहा है उस अत्यन्त आनन्ददायक तेज का हम ध्यान करते हैं। वह ‘हमें सद्बुद्धि दे, हमारे मन में शुभ विचार उत्पन्न करे।’हममें से प्रत्येक का कर्त्तव्य है कि प्रात:काल सूर्योदय के पूर्व जागृत हो कुछ अपने हृदयस्थ आत्मा से परमपिता परमात्मा का साक्षात्कार करे और अपना रोम-रोम पवित्र कर ले। शान्ति को प्रवाहित होने दे। विशुद्ध हृदय से महाप्रभु के अनन्त उपकारों का आभार मान कर समग्र प्राणीमात्र के जीवन, आनन्द, सुख वृद्धि के लिए प्रार्थना करे। इस निर्मल विशुद्ध उपासना से परमात्मा का दिव्य स्पर्श आपकी आत्मा को होगा। आपके समस्त मनस्ताप और क्लेश भस्मीभूत होकर नवजीवन और नवीन बल प्राप्त होगा और जीवन परम शान्ति और सुखी होगा। यह क्लेशों से मुक्ति का सुगम उपाय है। यही प्रार्थना का रहस्य है।
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