योग एवं सांस्कृतिक समन्यवय एवं जैन परम्परा - इकाई 1

योग एवं सांस्कृतिक समन्यवय एवं जैन परम्परा
                          इकाई 1





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संस्कृति की परिभाषा देते हुए उसके विकास/उद्भव/निर्माण, संस्कृति का निर्माण, प्रागैतिहासिक युग का संक्षिप्त सर्वेक्षण कीजिये  


Answer-: संस्कृति की परिभाषा- संस्कृति का अर्थ समाजशास्त्रीय अवधारणा के रूप मेंसीखा हुआ व्यवहारहोता है। अर्थात् कोई भी व्यक्ति बचपन से अब तक जो कुछ भी सीखता है, उदाहरण के तौरे पर खाने का तरीका, बात करने का तरीका, भाषा का ज्ञान, लिखना-पढना तथा अन्य योग्यताएँ, यह संस्कृति है।
रसिद्ध मानवशास्त्री एडवर्ड बनार्ट टायलर (1832-1917) के द्वारा सन् 1871 में प्रकाशित पुस्तक Primitive Culture में संस्कृति के संबंध में सर्वप्रथम उल्लेख किया गया है। टायलर मुख्य रूप से संस्कृति की अपनी परिभाषा के लिए जाने जाते हैं, इनके अनुसार, “संस्कृति वह जटिल समग्रता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला आचार, कानून, प्रथा और अन्य सभी क्षमताओं तथा आदतो का समावेश होता है जिन्हें मनुष्य समाज के नाते प्राप्त कराता है।” 

टायलर ने संस्कृति का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया है। इनके अनुसार सामाजिक प्राणी होने के नाते व्यक्ति अपने पास जो कुछ भी रखता है तथा सीखता है वह सब संस्कृति है। इस परिभाषा में सिर्फ अभौतिक तत्वों को ही सम्मिलित किया गया है।

राबर्ट बीरस्टीड (The Social Order) द्वारा संस्कृति की दी गयी परिभाषा है कि-: “संस्कृति वह संपूर्ण जटिलता है, जिसमें वे सभी वस्तुएँ सम्मिलित हैं, जिन पर हम विचार करते हैं, कार्य करते हैं और समाज के सदस्य होने के नाते अपने पास रखते हैं।
भारतीय संस्कृति संसार की सबसे पुरानी संस्कृति है। मानवों के विकास में भारतीय भूमि का स्थान कहाँ है, यह तो अभी विवादास्पद है, पर सभी जीवंत प्राचीन सभ्यताओँ में भारतीय संस्कृति निश्चित तौर पर सबसे पुरानी है। हमारी सभ्यता ने समय के उतार-चढ़ावों को देखते हुए भी लम्बे समय से अपनी उपस्थिति बनाए रखी है।
भारतीय संस्कृति को प्रायः तीन दृष्टियों से देखा जाता है। एक है रम्परावादियों की दृष्टि, और दूसरी है इसके प्रतिवाद रूप आधुनिकतावादियों की दृष्टि जो सारी प्राचीन परम्परा को अन्धविश्वास मानती है। व्यक्ति, समाज और देश के लिए दोनों ही अहितकर सिद्ध हुई हैं। इन से भिन्न एक और दृष्टि है- इतिहासमूलक समन्वयात्मक दृष्टि, जो प्राचीनकाल से ही हमारे देश में विद्यमान है। इसी दृष्टि के सहारे साम्प्रादायिक विरोध और विषमताओं के स्थान पर एकसूत्रता लाकर नये भारत के निर्माण का एक दृढ़ आधार बनाया जा सकता है।

यह समन्वय का कार्य आज ही नहीं आरम्भ हुआ है, वरन् प्राचीनकाल से ही होता आया है। विद्वान लेखक ने दिखाया है कि परम्परागत हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध नामनिगमागम धर्मका अर्थ स्पष्टतः यही है कि इसका आधार केवल निगम होकरआगमभी है और वह आगम-निगम धर्मों का समन्वित रूप है। लेखक की दृष्टि में निगम का अभिप्राय वैदिक परम्परा से है और आगम का अभिप्राय प्राचीनतर प्रागवैदिक काल से आयी हुई वैदिकेतर धार्मिक या सांस्कृतिक परम्परा से है। एक ओर देव और दूसरी ओर असुर, दास और दस्यु जिन्हेंअयज्ञाःतथाअनिन्द्राःअर्थात यज्ञ-प्रथा और इन्द्र को मानने वाले कहा गया है, और एक ओर ऋग्वेदीय रुद्र तथा अनेक वैदिक देवता और दूसरी ओर पौराणिक शिव तथा अन्य प्रचलित उपास्यदेव और कर्मकाण्ड, एक ओर कर्म और अमृतत्व तथा दूसरी ओर संन्यास और मोक्ष की भावना, एक ओर ऋषि-सम्प्रदाय और दूसरी ओर मुनि-सम्प्रदाय, एक ओर हिंसामूलक मांसाहार तथा असहिष्णुता और दूसरी ओर अहिंसा तथा तन्मूलक निरामिषता और विचार-सहिष्णुता अथवा अनेकान्तवाद, एक ओर वर्ण तथा दूसरी ओर जाति,एक ओर पुरुषविध देवता और दूसरी ओर स्त्रीविध देवता, एक ओर कृषि मूलक ग्राम-व्यवस्था और दूसरी ओर शिल्पमूलक नगर-व्यवस्था इत्यादि द्वन्द्व प्राचीन काल की दो संस्कार-धाराओं की ओर संकेत करते हैं। पुराण, रामायण, महाभारत आदि में यक्ष, राक्षस, विद्याधर, गन्धर्व, किन्नर, नाग आदि अनेक प्राग्-ऐतिहासिक जातियों का उल्लेख मिलता है। निगमागम धर्म का आधार केवल श्रुति होकर श्रुति-स्मरण-पुराण हैं। पुराण शब्द ही अत्यन्त प्राचीन संस्कृति की ओर संकेत करता है।
अतएव भारतीय संस्कृति के वैज्ञानिक अनुसन्धान के लिए वैदिक तथा वैदिकेतर साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन तथा लोक-साहित्य, लोकव्यवहार और लोकश्रुति तथा ऐतिहासिक और प्रागैतिहासिक पुरातत्व-विज्ञान, भाषा-विज्ञान, मानव-जातिविज्ञान, पुराण-विज्ञान आदि अनेक नवीन विज्ञानों के अनुशीलन की आवश्यकता है। यह कार्य डॉ. मंगलदेव शास्त्री जैसे प्राच्य तथा पाश्चात्य विद्या के अधिकारी विद्वानों द्वारा ही हो सकता है। विद्वान लेखक ने अपने अध्ययन को मौलिक आधारों पर ही प्रस्तुत किया है। उसमें उतनी ही और वे ही बातें प्रस्तुत की गयी हैं जो वेद आदि प्रमाणों से प्रत्यक्ष रूप से निष्पन्न होती हैं। किसी बात का कल्पना के आधार पर अप्रमाणित विस्तार नही किया गया है। इस मौलिक अध्ययन का एक आवश्यक परिणाम यह भी हुआ है कि आजकल प्रचलित अनेक वैज्ञानिक शब्दों के लिए सुन्दर पर्याय प्राप्त हुए हैं।

संस्कृति के प्रकार

1.      भौतिक संस्कृति

2.      अभौतिक संस्कृति

भौतिक संस्कृति – 

भौतिक संस्कृति के अन्र्तगत उन सभी भौतिक एवं मूर्त वस्तुओं का समावेश होता है जिनका निर्माण मनुष्य के लिए किया है, तथा जिन्हें हम देख एवं छू सकते हैं। भौतिक संस्कृति की संख्या आदिम समाज की तुलना में आधुनिक समाज में अधिक होती है, प्रो.बीयरस्टीड ने भौतिक संस्कृति के समस्त तत्वों को मुख्य 13 वर्गों में विभाजित करके इसे और स्पष्ट करने का प्रयास किया है- i.मशीनें ii.उपकरण iii.बर्तन iv.इमारतें v.सड़कें vi. पुल vii.शिल्प वस्तुऐं viii.कलात्मक वस्तुऐं ix.वस्त्र x.वाहन xi.फर्नीचर xii.खाद्य पदार्थ xiii.औशधियां आदि।

भौतिक संस्कृति की विशेषताएँ

  1. भौतिक संस्कृति मूर्त होती है।
  2. इसमें निरन्तर वृद्धि होती रहती है।
  3. भौतिक संस्कृति मापी जा सकती है।
  4. भौतिक संस्कृति में परिवर्तन शीघ्र होता है।
  5. इसकी उपयोगिता एवं लाभ का मूल्यांकन किया जा सकता है।
  6. भौतिक संस्कृति में बिना परिवर्तन किये इसे ग्रहण नहीं किया जा सकता है। 
अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने तथा उसे अपनाने में उसके स्वरूप में कोई फर्क नहीं पड़ता। उदाहरण के लिए मोटर गाड़ी, पोशाक तथा कपड़ा इत्यादि।

अभौतिक संस्कृति – 

अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत उन सभी अभौतिक एवं अमूर्त वस्तुओं का समावेश होता है, जिनके कोई माप-तौल, आकार एवं रंग आदि नहीं होते। अभौतिक संस्कृति समाजीकरण एवं सीखने की प्रक्रिया द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होती रहती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अभौतिक संस्कृति का तात्पर्य संस्कृति के उस पक्ष में होता है, जिसका कोई मूर्त रूप नहीं होता, बल्कि विचारों एवं विश्वासों कि माध्यम से मानव व्यवहार को नियन्त्रित, नियमित एवं प्रभावी करता है। प्रोñ बीयरस्टीड ने अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत विचारों और आदर्श नियमों को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया और कहा कि विचार अभौतिक संस्कृति के प्रमुख अंग है। विचारों की कोई निश्चित संख्या हो सकती है, फिर भी प्रोñ बीयरस्टीड ने विचारों के कुछ समूह प्रस्तुत किये हैं-
i.वैज्ञानिक सत्य ii-धार्मिक विश्वास iii.पौराणिक कथाएँ iv.उपाख्यान v.साहित्य vi.अन्ध-विश्वास vii.सूत्र viii.लोकोक्तियाँ आदि।
ये सभी विचार अभौतिक संस्कृति के अंग होते हैं। आदर्श नियमों का सम्बन्ध विचार करने से नहीं, बल्कि व्यवहार करने के तौर-तरीकों से होता है। अर्थात् व्यवहार के उन नियमों या तरीकों को जिन्हें संस्कृति अपना आदर्श मानती है, आदर्श नियम कहा जाता है। प्रो. बीयरस्टीड ने सभी आदर्श नियमों को 14 भागों में बाँटा है-
1.कानून 2.अधिनियम 3.नियम 4.नियमन 5.प्रथाएँ 6.जनरीतियाँ 7. लोकाचार 8.निशेध 9.फैशन 10. संस्कार 11.कर्म-काण्ड 12.अनुश्ठान 13.परिपाटी 14.सदाचार।

अभौतिक संस्कृति की विशेषताएँ

  1. अभौतिक संस्कृति अमूर्त होती है।
  2. इसकी माप करना कठिन है।
  3. अभौतिक संस्कृति जटिल होती है।
  4. इसकी उपयोगिता एवं लाभ का मूल्यांकन करना कठिन कार्य है।
  5. अभौतिक संस्कृति में परिवर्तन बहुत ही धीमी गति से होता है।
  6. अभौतिक संस्कृति को जब एक स्थान से दूसरे स्थान में ग्रहण किया जाता है, तब उसके रूप में थोड़ा--थोड़ा परिवर्तन अवश्य होता है।
  7. अभौतिक संस्कृति मनुष्य के आध्यात्मिक एवं आन्तरिक जीवन से सम्बन्धित होती है।

संस्कृति की प्रकृति या विशेषताएँ 

1.      संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है
2.      संस्कृति सामाजिक होती है
3.      संस्कृति हस्तान्तरित होती है
4.      संस्कृति मनुष्य द्वारा निर्मित है
5.      संस्कृति मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करती है
6.      प्रत्येक समाज की अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है
7.      संस्कृति में अनुकूलन का गुण होता है
8.      संस्कृति में संतुलन तथा संगठन होता है
9.      संस्कृति समूह का आदर्श होती है

सांस्कृतिक विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। हमारे पूर्वजों ने बहुत सी बातें अपने पुरखों से सीखी है। समय के साथ उन्होंने अपने अनुभवों से उसमें और वृद्धि की। जो अनावश्यक था, उसको उन्होंने छोड़ दिया। हमने भी अपने पूर्वजों से बहुत कुछ सीखा। जैसे-जैसे समय बीतता है, हम उनमें नए विचार, नई भावनाएँ जोड़ते चले जाते हैं और इसी प्रकार जो हम उपयोगी नहीं समझते उसे छोड़ते जाते हैं। इस प्रकार संस्कृति एक पीढी से दूसरी पीढी तक हस्तान्तरिक होती जाती है। जो संस्कृति हम अपने पूर्वजों से प्राप्त करते हैं उसे सांस्कृतिक विरासत कहते हैं। यह विरासत कई स्तरों पर विद्यमान होती है। मानवता ने सम्पूर्ण रूप में जिस संस्कृति को विरासत के रूप में अपनाया उसे 'मानवता की विरासत' कहते हैं। एक राष्ट्र भी संस्कृति को विरासत के रूप में प्राप्त करता है जिसे 'राष्ट्रीय सांस्कृतिक विरासत' कहते हैं। सांस्कृतिक विरासत में वे सभी पक्ष या मूल्य सम्मिलित हैं जो मनुष्यों को पीढ़ी दर पीढ़ी अपने पूर्वजों से प्राप्त हुए हैं। वे मूल्य पूजे जाते हैं, संरक्षित किए जाते हैं और अटूट निरन्तरता से सुरक्षित रखे जाते हैं और आने वाली पीढ़ियाँ इस पर गर्व करती हैं।
विरासत के संप्रत्यय को स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण सहायक सिद्ध होंगे। ताजमहल, स्वामी नारायण मंदिर (गांधी नगर और दिल्ली), आगरे का लाल किला, दिल्ली की कुतुब मीनार, मैसूर महल, दिलवाड़े का जैन मंदिर (राजस्थान), निजामुद्दीन-औलिया की दरगाह, अमृतसर का स्वर्ण मंदिर। दिल्ली का शीशगंज गुरुद्वारा, सांची स्तूप, गोआ में क्रिश्चियन चर्च, इंडिया गेट आदि हमारी विरासत के महत्त्वपूर्ण स्थान हैं और ये किसी भी प्रकार संरक्षित किये जाने चाहिए।
वास्तु संबंधित इन रचनाओं, इमारतों, शिल्पकृतियों के अलावा बौद्धिक उपलब्धियाँ, दर्शन, ज्ञान के ग्रन्थ, वैज्ञानिक आविष्कार और खोज भी विरासत का हिस्सा हैं। भारतीय संदर्भ में गणित, खगोल विद्या और ज्योतिष के क्षेत्र में बौधायन, आर्यभट्ट और भास्कराचार्य का योगदान, भौतिकशास्त्र के क्षेत्र में कणाद और वराहमिहिर का, रसायनशास्त्र के क्षेत्र में नागार्जुन, औषधि के क्षेत्र में सुश्रुत और चरक, योग के क्षेत्र में पतंजलि हमारी भारतीय सांस्कृतिक विरासत के प्रगाढ़ खजाने हैं। संस्कृति परिवर्तनशील है लेकिन हमारी विरासत परिवर्तनील नहीं है।
 
प्रागैतिहासिक युग का संक्षिप्त सर्वेक्षण-:

मानव सभ्यता के इतिहास का वह काल-खण्ड जिसके सम्बन्ध में हमारा ज्ञान मूलतया पुरातात्विक साक्ष्यों पर आधारित है, प्रागैतिहासिक काल कहलाता है। प्रागैतिहासिक शब्द ऐसे काल को ध्वनित करता है जिसका आविर्भाव मानव रूप प्राणियों के आगमन के साथ एवं ऐतिहासिक काल के आगमन के पूर्व हुआ था। इस काल में मनुष्य लेखन-कला से सर्वथा अपरिचित था। इसलिए इतिहासकारों ने इसे प्राक् साक्षर काल भी कहा है। ऐतिहासिक काल से आशय मानव इतिहास के उस काल से है जिसके अध्ययन के लिए हमें उस युग के निश्चित साक्ष्य सुलभ है। प्रागैतिहासिक एवं ऐतिहासिक कालों में कालगत समता नहीं है। मानव इतिहास का 90% भाग प्रागैतिहासिक काल के अन्तर्गत आता है, शेष 10% ऐतिहासिक काल के अन्तर्गत।
प्रागैतिहासिक (Prehistory) इतिहास के उस काल को कहा जाता है जब मानव तो अस्तित्व में थे लेकिन जब लिखाई का आविष्कार होने से उस काल का कोई लिखित वर्णन नहीं है।[1] इस काल में मानव-इतिहास की कई महत्वपूर्ण घटनाएँ हुई जिनमें हिमयुग, मानवों का अफ़्रीका से निकलकर अन्य स्थानों में विस्तार, आग पर स्वामित्व पाना, कृषि का आविष्कार, कुत्तों अन्य जानवरों का पालतू बनना इत्यादि शामिल हैं। ऐसी चीज़ों के केवल चिह्न ही मिलते हैं, जैसे कि पत्थरों के प्राचीन औज़ार, पुराने मानव पड़ावों का अवशेष और गुफाओं की कला। पहिये का आविष्कार भी इस काल में हो चुका था जो प्रथम वैज्ञानिक आविष्कार था
इतिहासकार प्रागैतिहास को कई श्रेणियों में बांटते हैं। एक ऐसी विभाजन प्रणाली में तीन युग बताए जाते हैं:
प्रागैतिहासिक काल में मानवों का वातावरण बहुत भिन्न था। अक्सर मानव छोटे क़बीलों में रहते थे और उन्हें जंगली जानवरों से जूझते हुए शिकारी-फ़रमर जीवन व्यतीत करना पड़ता था। विश्व की अधिकतर जगहें अपनी प्राकृतिक स्थिति में थीं। ऐसे कई जानवर थे जो आधुनिक दुनिया में नहीं मिलते, जैसे कि मैमथ और बालदार गैंडा विश्व के कुछ हिस्सों में आधुनिक मानवों से अलग भी कुछ मानव जातियाँ थीं जो अब विलुप्त हो चुकी हैं, जैसे कि यूरोप और मध्य एशिया में रहने वाले निअंडरथल मानव अनुवांशिकी अनुसन्धान से पता चला है कि भारतीयों-समेत सभी ग़ैर-अफ़्रीकी मानव कुछ हद तक इन्ही निअंडरथलों की संतान हैं, यानि आधुनिक मानवों और निअंडरथलों ने आपस में बच्चे पैदा किये थे।
यहाँ हम इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्रागैतिहासिक काल की मानव सभ्यता को तीन महत्त्वपूर्ण भागों में बाँट सकते हैं-
1. प्रागैतिहासिक काल (मानव इतिहास के प्रारम्भ से लगभग 3000 .पू. तक का काल) इतिहास का वह भाग जिसके अध्ययन हेतु केवल पुरातात्विक समग्रियां पलब्ध हैं, प्रागैतिहासिक काल कहलाता है।
2. आद्य ऐतिहासिक काल- (3000 .पू. से 600 .पू. तक) सिंधु एवं वैदिक सभ्यता इस काल से संबंधित है। इसके अध्ययन हेतु पुरातात्विक एवं साहित्यिक दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं, परंतु पुरातात्विक साक्ष्यों का ही उपयोग हो पाता है। वैदिक साहित्य इसका अपवाद है।
3. ऐतिहासिक काल- (600 .पू. के पश्चात् का काल) इस काल के अध्ययन हेतु पुरातात्विक, साहित्यिक तथा विदेशियों के वर्णन, तीनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं। प्रागैतिहासिक काल-यह तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-
  • पुरापाषाण काल- 5 लाख .पू. से 10 हजार .पू. तक।
  • मध्यपाषाण काल- 10 हजार से 6 हजार .पू. तक।
  • नवपाषाण काल- 6 हजार .पू. के पश्चात्।
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  • वैदिक युग का सामान्य सर्वेक्षण-: सिंधु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) के पश्चात भारत में जिस नवीन सभ्यता का विकास हुआ उसे ही आर्य(Aryan) अथवा वैदिक सभ्यता(Vedic Civilization) के नाम से जाना जाता है। इस काल की जानकारी हमे मुख्यत: वेदों से प्राप्त होती है, जिसमे ऋग्वेद सर्वप्राचीन होने के कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वैदिक काल को ऋग्वैदिक या पूर्व वैदिक काल (1500 -1000 .पु.) तथा उत्तर वैदिक काल (1000 - 600 .पु.) में बांटा गया है। वैदिक काल, या वैदिक समय (c. 1500 - c.500 ईसा पूर्व), शहरी सिंधु घाटी सभ्यता के अंत और उत्तरी मध्य-गंगा में शुरू होने वाले एक दूसरे शहरीकरण के बीच उत्तरी भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में अवधि है। सादा c. 600 .पू. इसका नाम वेदों से मिलता है, जो इस अवधि के दौरान जीवन का विवरण देने वाले प्रख्यात ग्रंथ हैं जिन्हें ऐतिहासिक माना गया है और अवधि को समझने के लिए प्राथमिक स्रोतों का गठन किया गया है। संबंधित पुरातात्विक रिकॉर्ड के साथ ये दस्तावेज वैदिक संस्कृति के विकास का पता लगाने और अनुमान लगाने की अनुमति देते हैं। आम तौर पर अधिकतर विद्वान वैदिक सभ्यता का काल 5000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व के बीच मे मानत है|
    वैदिक काल को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है- ऋग्वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल। ऋग्वैदिक काल आर्यों के आगमन के तुरंत बाद का काल था जिसमें कर्मकांड गौण थे पर उत्तरवैदिक काल में हिन्दू धर्म में कर्मकांडों की प्रमुखता बढ़ गई|
    ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ई.पू.) - इस काल की तिथि निर्धारण जितनी विवादास्पद रही है उतनी ही इस काल के लोगों के बारे में सटीक जानकारी। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि इस समय तक केवल इसी ग्रंथ (ऋग्वेद) की रचना हुई थी। मैक्स मूलर के अनुसार आर्य का मूल निवास मध्य ऐशिया है।आर्यो द्वारा निर्मित सभ्यता वैदिक काल कहलाई। आर्यो द्वारा विकसित सभ्य्ता ग्रामीण सभ्यता कहलायी। आर्यों की भाषा संस्कृत थी।
    उत्तरवैदिक काल (1०००-6०० ई०पू०)- ऋग्वैदिक काल में आर्यों का निवास स्थान सिंधु तथा सरस्वती नदियों के बीच में था। बाद में वे सम्पूर्ण उत्तर भारत में फ़ैल चुके थे। सभ्यता का मुख्य क्षेत्र गंगा और उसकी सहायक नदियों का मैदान हो गया था। गंगा को आज भारत की सबसे पवित्र नदी माना जाता है। इस काल में विश् का विस्तार होता गया और कई जन विलुप्त हो गए। भरत, त्रित्सु और तुर्वस जैसे जन् राजनीतिक हलकों से ग़ायब हो गए जबकि पुरू पहले से अधिक शक्तिशाली हो गए। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में कुछ नए राज्यों का विकास हो गया था, जैसे - काशी, कोसल, विदेह (मिथिला), मगध और अंग।
    ऋग्वैदिक काल में सरस्वती नदी को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। ग॓गा का एक बार और यमुना नदी का उल्लेख तीन बार हुआ है। इस काल मे कौसाम्बी नगर मे॓ पहली बार पक्की ईटो का प्रयोग किया गया | काल मे वर्ण व्यासाय के बजाय जन्म के आधार पे निर्धारित होने लगे।

    वैदिक साहित्य

    • वैदिक साहित्य में चार वेद एवं उनकी संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों एवं वेदांगों को शामिल किया जाता है।
    • वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।
    • ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद विश्व के प्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ है।
    • वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। गुरु द्वारा शिष्यों को मौखिक रूप से कंठस्त कराने के कारण वेदों को "श्रुति" की संज्ञा दी गई है।

    ऋग्वेद

    1. ऋग्वेद देवताओं की स्तुति से सम्बंधित रचनाओं का संग्रह है। 2. यह 10 मंडलों में विभक्त है। इसमे 2 से 7 तक के मंडल प्राचीनतम माने जाते हैं। प्रथम एवं दशम मंडल बाद में जोड़े गए हैं। इसमें 1028 सूक्त हैं। 3. इसकी भाषा पद्यात्मक है। 4. ऋग्वेद में 33 प्रकार के देवों (दिव्य गुणो से युक्त पदार्थो) का उल्लेख मिलता है। 5. प्रसिद्ध गायत्री मंत्र जो सूर्य से सम्बंधित देवी गायत्री को संबोधित है, ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्राप्त होता है। 6. ' असतो मा सद्गमय ' वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है। 7. ऋग्वेद में मंत्र को कंठस्त करने में स्त्रियों के नाम भी मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृती आदि। 8. इसके पुरोहित के नाम होत्री है।

    यजुर्वेद

    • यजु का अर्थ होता है यज्ञ। इसमें धनुर्यवीद्या का उल्लेख है।
    • इसके पाठकर्ता को अध्वर्यु कहते हैं।
    • यजुर्वेद वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन किया गया है।
    • इसमे मंत्रों का संकलन आनुष्ठानिक यज्ञ के समय सस्तर पाठ करने के उद्देश्य से किया गया है।
    • इसमे मंत्रों के साथ साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी विवरण है, जिसे मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किए जाने का विधान सुझाया गया है।
    • यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक एवं गद्यात्मक दोनों है।
    • यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद।
    • कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं हैं- मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिन्थल तथा संहिता। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- मध्यान्दीन तथा कण्व संहिता।
    • यह 40 अध्याय में विभाजित है।
    • इसी ग्रन्थ में पहली बार राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोह का उल्लेख है।

    सामवेद

    सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिए गए मंत्रों को गाने योग्य बनाने हेतु की गयी थी।
    • इसमे 1810 छंद हैं जिनमें 75 को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लेखित हैं।
    • सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है- कौथुम, राणायनीय और जैमनीय।
    • सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है
     
    वैदिक साहित्य-

    1.       ऋग्वेद
    2.       यजुर्वेद
    3.       सामवेद
    4.       ब्राह्मण
    5.       आरण्यक
    6.       उपनिषद
    7.       वेदांग
    8.       सूत्र साहित्य
     




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