योग
एवं सांस्कृतिक समन्यवय एवं जैन परम्परा-इकाई 3
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धर्म-: धर्म का शाब्दिक अर्थ होता है, 'धारण करने योग्य'सबसे उचित धारणा, अर्थात जिसे सबको धारण करना चाहिये'। हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, जैन या बौद्ध आदि धर्म न होकर सम्प्रदाय या समुदाय मात्र हैं। “सम्प्रदाय” एक परम्परा के मानने वालों का समूह है। ऐसा माना जाता है कि धर्म मानव को मानव बनाता है। साधारण शब्दों में धर्म के बहुत से अर्थ हैं जिनमें से कुछ ये हैं- कर्तव्य, अहिंसा, न्याय, सदाचरण, सद्-गुण आदि।
सनातन धर्म में चार पुरुषार्थ स्वीकार किए गये हैं जिनमें धर्म प्रमुख है। तीन अन्य पुरुषार्थ ये हैं- अर्थ, काम और
मोक्ष।
गौतम ऋषि कहते हैं - 'यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धिः स धर्म।'
(जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है। )
मनु ने मानव धर्म के दस लक्षण बताये हैं:
धृतिः
क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या
सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ॥
(धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरंग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना) ; ये दस मानव धर्म के लक्षण हैं।)
वात्सायन के अनुसार धर्म
वात्स्यायन ने धर्म और अधर्म की तुलना करके धर्म को स्पष्ट किया है। वात्स्यायन मानते हैं कि मानव के लिए धर्म मनसा, वाचा, कर्मणा होता है। यह केवल क्रिया या कर्मों से सम्बन्धित नहीं है बल्कि धर्म चिन्तन और वाणी से भी संबंधित है।महाभारत के वनपर्व (313/128) में कहा है-
धर्म एव हतो
हन्ति धर्मो रक्षति
रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो
हतोऽवधीत् ॥
मरा
हुआ धर्म मारने वाले का नाश, और
रक्षित धर्म रक्षक की रक्षा करता
है। इसलिए धर्म का हनन कभी
न करना, इस डर से
कि मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले।
संस्कृति-:
संस्कृति का शब्दार्थ है - उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसन्धान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है। सभ्यता संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त ही बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते हैं। मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौन्दर्य की खोज करते हुए वह संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। सुखपूर्वक निवास के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है। इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक् कृति संस्कृति का अंग बनती है। इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है।
अंग्रेजी में संस्कृति के लिये 'कल्चर' शब्द प्रयोग किया जाता है जो लैटिन भाषा के ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। संक्षेप में, किसी वस्तु को यहाँ तक संस्कारित और परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके। यह ठीक उसी तरह है जैसे संस्कृत भाषा का शब्द ‘संस्कृति’।
संस्कृति की अवधारणा-:
संस्कृति जीवन की विधि है। जो भोजन हम खाते हैं, जो कपड़े पहनते हैं, जो भाषा बोलते हैं और जिस भगवान की पूजा करते हैं, ये सभी सभ्यता कहलाते हैं; तथापि इनसे संस्कृति भी सूचित होती है। सरल शब्दों मे हम कह सकते हैं कि संस्कृति उस विधि का प्रतीक है जिसके आधार पर हम सोचते हैं; और कार्य करते हैं। इसमें वे अमूर्त/अभौतिक भाव और विचार भी सम्मिलित हैं जो हमने एक परिवार और समाज के सदस्य होने के नाते उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं। एक सामाज वर्ग के सदस्य के रूप में मानवों की सभी उपलब्धियाँ उसकी संस्कृति से प्रेरित कही जा सकती हैं। कला, संगीत, साहित्य, वास्तुविज्ञान, शिल्पकला, दर्शन, धर्म और विज्ञान सभी संस्कृति के प्रकट पक्ष हैं। तथापि संस्कृति में रीतिरिवाज, परम्पराएँ, पर्व, जीने के तरीके, और जीवन के विभिन्न पक्षों पर व्यक्ति विशेष का अपना दृष्टिकोण भी सम्मिलित हैं।संस्कृति और सभ्यता-:
संस्कृति और सभ्यता दोनों शब्द प्रायः पर्याय के रूप में प्रयुक्त कर दिये जाते हैं। फिर भी दोनों में मौलिक भिन्नता है; और दोनों के अर्थ अलग-अलग हैं। संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज में निहित संस्कारों से है; और उसका निवास उसके मानस में होता है। दूसरी ओर, सभ्यता का क्षेत्र व्यक्ति और समाज के बाह्य स्वरूप से है। 'सभ्य' का शाब्दिक अर्थ है, 'जो सभा में सम्मिलित होने योग्य हो'। इसलिए, सभ्यता ऐसे सभ्य व्यक्ति और समाज के सामूहिक स्वरूप को आकार देती है। सभ्यता को अंग्रेजी में 'सिविलाइज़ेशन' (civilization) कहते है; और कल्चर (culture) से उसका अन्तर स्पष्ट ही है। संस्कृति और सभ्यता में भी वही भेद है।संस्कृति की सामान्य विशेषतायें
1- संस्कृति सीखी जाती है और प्राप्त की जाती है, अर्थात् मानव के द्वारा संस्कृति को प्राप्त किया जाता है इस अर्थ में कि कुछ निश्चित व्यवहार हैं जो जन्म से या अनुवांशिकता से प्राप्त होते हैं, व्यक्ति कुछ गुण अपने माता-पिता से प्राप्त करता है लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवहारों को पूर्वजों से प्राप्त नहीं करता हैं। वे पारिवारिक सदस्यों से सीखे जाते हैं, इन्हें वे समूह से और समाज से जिसमें वे रहते हैं उनसे सीखते हैं। यह स्पष्ट है कि मानव की संस्कृति शारीरिक और सामाजिक वातावरण से प्रभावित होती है। जिनके माध्यम से वे कार्य करते हैं।
2- संस्कृति लोगों के समूह द्वारा बाँटी जाती है- एक सोच या विचार या कार्य को संस्कृति कहा जाता है यदि यह लोगों के समूह के द्वारा बाँटा और माना जाता या अभ्यास में लाया जाता है।
3- संस्कृति संचयी होती है- संस्कृति में शामिल विभिन्न ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित किया जा सकता है। जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, ज्यादा से ज्यादा ज्ञान उस विशिष्ट संस्कृति में जुड़ता चला जाता है, जो जीवन में परेशानियों के समाधान के रूप में कार्य करता है, पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहता है। यह चक्र बदलते समय के साथ एक विशिष्ट संस्कृति के रूप में बना रहता है।
4- संस्कृति परिवर्तनशील होती है- ज्ञान, विचार और परम्परायें नयी संस्कृति के साथ अद्यतन होकर जुड़ते जाते हैं। समय के बीतने के साथ ही किसी विशिष्ट संस्कृति में सांस्कृतिक परिवर्तन संभव होते जाते हैं।
5- संस्कृति गतिशील होती है- कोई भी संस्कृति स्थिर दशा में या स्थायी नहीं होती है। जैसे समय बीतता है संस्कृति निरंतर बदलती है और उसमें नये विचार और नये कौशल जुड़ते चले जाते हैं और पुराने तरीकों में परिवर्तन होता जाता है। यह संस्कृति की विशेषता है जो संस्कृति की संचयी प्रवृत्ति से उत्पन्न होती है।
6- संस्कृति हमें अनेक प्रकार के स्वीकृति व्यवहारों के तरीके प्रदान करती है- यह बताती है कि कैसे एक कार्य को संपादित किया जाना चाहिये, कैसे एक व्यक्ति को समुचित व्यवहार करना चाहिए।
7- संस्कृति भिन्न होती है- यह ऐसी व्यवस्था है जिसमें विभिन्न पारस्परिक भाग एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यद्यपि ये भाग अलग होते हैं, वे संस्कृति को पूर्ण रूप प्रदान करने में एक दूसरे पर आश्रित होते हैं।
8- संस्कृति अक्सर वैचारिक होती है- एक व्यक्ति से उन विचारों का पालन करने की आशा की जाती है जिससे प्रायः यह एक आदर्श तरीका प्रस्तुत करती है जिससे उसी संस्कृति के अन्य लोगों से सामाजिक स्वीकृति प्राप्त की जा सके।
1.
प्राचीनता
2.
निरन्तरता
3.
लचीलापन
एवं सहिष्णुता
4.
ग्रहणशीलता
5.
आध्यात्मिकता
एवं भौतिकता का समन्वय
6. अनेकता में एकता
संस्कृति के दो पक्ष होते हैं-
- (1) आधिभौतिक संस्कृति,
- (2) भौतिक संस्कृति।
सामान्य अर्थ
में
आधिभौतिक संस्कृति को
संस्कृति और
भौतिक
संस्कृति को
सभ्यता
के
नाम
से
अभिहित
किया
जाता
है।
संस्कृति के
ये
दोनों
पक्ष
एक
दूसरे
से
भिन्न
होते
है।
संस्कृति आभ्यंतर है,
इसमें
परंपरागत चिंतन,
कलात्मक अनुभूति, विस्तृत ज्ञान
एवं
धार्मिक आस्था
का
समावेश
होता
है।
सभ्यता
बाह्य
वस्तु
है,
जिसमें
मनुष्य
की
भौतिक
प्रगति
में
सहायक
सामाजिक, आर्थिक,
राजनीतिक और
वैज्ञानिक उपलब्धियाँ सम्मिलित होती
हैं।
संस्कृति हमारे
सामजिक
जीवनप्रवाह की
उद्गमस्थली है
और
सभ्यता
इस
प्रवाह
में
सहायक
उपकरण।
संस्कृति साध्य
है
और
सभ्यता
साधन।
संस्कृति सभ्यता
की
उपयोगिता के
मूल्यांकन के
लिए
प्रतिमान उपस्थित करती
है।
संस्कृतिकरण और व्यक्तित्व का विकास-:
संस्कृतीकरण भारत में देखा जाने वाला विशेष तरह का सामाजिक परिवर्तन है। इसका मतलब है वह प्रक्रिया जिसमें जातिव्यवस्था में निचले पायदान पर स्थित जातियाँ ऊँचा उठने का प्रयास करती हैं। ऐसा करने के लिए वे उच्च या प्रभावी जातियों के रीति-रिवाज़ या प्रचलनों को अपनाती हैं। संस्कृति मानव की श्रेष्ठतम धरोहर है जिसकी सहायता से वह पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता जा रहा है। बिना संस्कृति के मानव समाज का निर्माण संभव नहीं है। संस्कृति जीवन की संपूर्ण विधि है तथा मानसिक, सामाजिक एवं भौतिक साधन है जिससे की जीवन की संपूर्ण विधि बनी हुई है।
संस्कृति शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है। संस्कृत और संस्कृति दोनों ही शब्द संस्कार से बने हैं। संस्कार का अर्थ है कुछ कृत्यों की पूर्ति करना।
इस शब्द के प्रयोग को भारतीय समाजशास्त्री एम. एन. श्रीनिवास ने 1950 के दशक में लोकप्रिय बनाया |
श्रीनिवास ने संस्कृतीकरण की परिभाषा देते हुए कहा कि "इस प्रक्रिया में निचली या मध्यम हिन्दू जाति या जनजाति या कोई अन्य समूह, अपनी प्रथाओं, रीतियों और जीवनशैली को उच्च या प्रायः द्विज जातियों की दिशा में बदल लेते हैं। प्रायः ऐसे परिवर्तन के साथ ही वे जातिव्यवस्था में उस स्थिति से उच्चतर स्थिति के दावेदार भी बन जाते हैं, जो कि परम्परागत रूप से स्थानीय समुदाय उन्हें प्रदान करता आया हो |
संस्कृतीकरण का
एक
स्पष्ट
उदाहरण
कथित
"निम्न
जातियों" के लोगों
द्वारा
द्विज
जातियों के
अनुकरण
में
शुद्ध
शाकाहार को
अपनाना
है,
जो
कि
परम्परागत रूप
से
अशाकाहारी भोजन
के
विरोधी
नहीं
होते।
एम.
एन.
श्रीनिवास के
अनुसार,
संस्कृतीकरण केवल
नयी
प्रथाओं और
आदतों
का
अंगीकार करना
ही
नहीं
है,
बल्कि
संस्कृत में
विद्यमान नये
विचारों और
मूल्यों के
साथ
साक्षात्कार करना
भी
इसमें
आ
जाता
है।
वे
कहते
हैं
कि
कर्म,
धर्म,
पाप,
माया,
संसार,
मोक्ष
आदि
ऐसे
संस्कृत साहित्य में
उपस्थित विचार
हैं
जो
कि
संस्कृतीकृत लोगों
के
बोलचाल
में
आम
हो
जाते
हैं।
संस्कृति की प्रकृति या विशेषताएं ( Nature or characteristics of culture )
- संस्कृति मानव निर्मित है।
- संस्कृति किसी भी समाज की एक अमूल्य धरोहर है।
- संस्कृति सीखी व अपनाई जाती है।
- पीढ़ी दर पीढ़ी संस्कृति का हस्तांतरण होता रहता है।
- प्रत्येक समाज की एक विशिष्ट संस्कृति होती है।
- संस्कृति में सामाजिक गुण निहित होता है।
- संस्कृति समूह के लिए आदर्श होती है।
- संस्कृति मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।
- संस्कृति में अनुकूलन की क्षमता होती है।
- संस्कृति में संतुलन एवं संगठन होता है।
- मानव व्यक्तित्व के निर्माण में संस्कृति निरंतर सहायक होती है।
- संस्कृति मनुष्य और जीवन से ऊपर श्रेष्ठ है।
व्यक्तित्व-विकास में वंशानुक्रम (Heredity) तथा परिवेश (Environment) दो प्रधान तत्त्व हैं। वंशानुक्रम व्यक्ति को जन्मजात शक्तियाँ प्रदान करता है। परिवेश उसे इन शक्तियों को सिद्धि के लिए सुविधाएँ प्रदान करता है। बालक के व्यक्तित्व पर सामाजिक परिवेश प्रबल प्रभाव डालता है। ज्यों-ज्यों बालक विकसित होता जाता है, वह उस समाज या समुदाय की शैली को आत्मसात् कर लेता है, जिसमें वह बड़ा होता है, व्यक्तित्व पर गहरी छाप छोड़ते हैं |
मनुष्य-चरित्र को परखना भी बड़ा कठिन कार्य है, किन्तु असम्भव नहीं है। कठिन वह केवल इसलिए नहीं है कि उसमें विविध तत्त्वों का मिश्रण है बल्कि इसलिए भी है कि नित्य नई परिस्थितियों के आघात-प्रतिघात से वह बदलता रहता है। वह चेतन वस्तु है। परिवर्तन उसका स्वभाव है। प्रयोगशाला की परीक्षण नली में रखकर उसका विश्लेषण नहीं किया जा सकता। उसके विश्लेषण का प्रयत्न सदियों से हो रहा है। हजारों वर्ष पहले हमारे विचारकों ने उसका विश्लेषण किया था। आज के मनोवैज्ञानिक भी इसी में लगे हुए हैं। फिर भी यह नहीं कह सकते कि मनुष्य-चरित्र का कोई भी संतोषजनक विश्लेषण हो सका है।
‘चरित्र’ शब्द मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रकट करता है। ‘अपने को पहचानो’ शब्द का वही अर्थ है जो ‘अपने चरित्र को पहचानो’ का है।
उपनिषदों ने जब कहा था : ‘आत्मा वारे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः; नान्यतोऽस्ति विजानत:,’ तब इसी दुर्बोध मनुष्य-चरित्र को पहचानने की प्रेरणा की थी।
व्यक्तित्व के तीन भेद माने जाते है-
(i). अन्तर्मुखी–अंतर्मुखी झेंपने वाले, आदर्शवादी और संकोची स्वभाव वाले होते है। इसी स्वभाव के कारण वे अपने विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में असफल रहते है। ये बोलना और मिलना कम पसंद करते है। पढ़ने में अधिक रूचि लेते है। इनकी कार्य क्षमता भी अधिक होती है।
(ii). बहिर्मुखी–बहिर्मुखी व्यक्ति भौतिक और सामाजिक कार्यो में विशेष रूचि लेते है। ये मेलजोल बढ़ाने वाले और वाचाल होते हैं। ये अपने विचारों और भावनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त कर सकते हैं। इनमे आत्मविश्वास चरम सीमा पर होता है और बाह्य सामंजस्य के प्रति सचेत रहते है।
(iii). उभयमुखी–इस प्रकार के व्यक्ति कुछ परिस्थितियों में बहिर्मुखी तथा कुछ में अंतर्मुखी होते है। जैसे एक व्यक्ति अच्छा बोलने वाला और लिखने वाला है, किन्तु एकांत में कार्य करना चाहता है।
संस्कृति समन्वय में योग की भूमिका /संस्कृति , मानवता और योग का परस्पर सम्बन्ध -:
योग, आध्यात्मिक भारत को जानने और समझने का एक तरीका है। इसके साथ ही योग भारत की संस्कृति और विरासत से भी जुड़ा हुआ है। संस्कृत में, योग का अर्थ है “एकजुट होना”। योग स्वस्थ जीवन जीने के तरीके का वर्णन करता है। योग में ध्यान लगाने से मन अनुशासित होता है। योग से शरीर का उचित विकास होता है और यह सुदृढ़ होता है। योग के अनुसार, यह वास्तव में हमारे स्वास्थ्य पर अपना प्रभाव डालने वाला शरीर का तंत्रिका तंत्र है। तंत्रिका तंत्र दैनिक योग करने से शुद्ध (मजबूत) होता है और इस प्रकार योगा हमारे शरीर को स्वस्थ और मजबूत बनाता है।
मानव सभ्यता जितनी पुरानी है, उतनी ही पुरानी योग की उत्पत्ति मानी जाती है, लेकिन इस तथ्य को साबित करने का कोई ठोस सबूत मौजूद नहीं है। इस क्षेत्र में व्यापक शोध के बावजूद भी, योग की उत्पत्ति के संबंध में कोई ठोस परिणाम प्राप्त नहीं हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि भारत में योग की उत्पत्ति लगभग 5000 साल पूर्व हुई थी। बहुत से पश्चिमी विद्वानों का मानना था कि योगा की उत्पत्ति 5000 साल पूर्व नहीं, बल्कि बुद्ध (लगभग 500 ईसा पूर्व) के समय में हुई थी। सिंधु घाटी की सबसे प्राचीन सभ्यता की खुदाई के दौरान, बहुत ही आश्चर्यजनक तथ्य उभरकर सामने आए। खुदाई के दौरान, इस सभ्यता के अस्तित्व वाले साबुन के पत्थर (सोपस्टोन) पर आसन की मुद्रा में बैठे योगी के चित्र उत्कीर्ण मिले हैं। मूल रूप से, योग की शुरूआत स्वयं के हित की बजाय सभी लोगों की भलाई के लिए हुई है।
1.
वैदिक
योग
2. प्रारम्भिक-शास्त्रीय योग
3. शास्त्रीय योग
4. पूर्व-शास्त्रीय योग
5. आधुनिक योग
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भागभवेत् ।।’
(भावार्थ – इस सकल
विश्व
के
सभी
प्राणी
सुखी
हों
, सभी
निरोगी
हों
, सभी
के
मध्य
मित्रता के
भाव
रहें
और
किसी
के
भी
जीवन
में
कभी
भी
दुःख
न
हो.)
वेद का ऋषि इस मंत्र के माध्यम से जिस संकल्प को साकार होते देखना चाहता है, उसे ‘योग’ के अमूल्य योगदान ने चरितार्थ कर दिया है ।पूरी दुनिया को भारत द्वारा दी गई महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं में ‘योग’ भी एक है।योग भारतीय सभ्यता और संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है।हज़ारों वर्ष से भारत योग के क्षेत्र में अग्रणी है।तभी तो महाभारत के समय ‘गीता’ का उपदेश करते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं – ‘योग कर्मसु कौशलम् ‘ अर्थात योग के माध्यम से सभी कार्यों में कुशलता आती है।’ वस्तुतः योग का शाब्दिक अभिप्रायः है- ‘जोड़’ यानि जब ऊर्जाओं का समुचित अनुपात में एक संतुलित संयोग होता है तब योग की उत्पत्ति होती है।
द्वापर
युग
में
भगवान
श्री
कृष्ण
योग
को
नए
अर्थों
में
प्रकट
करते
हैं,
तभी
तो
उनका
एक
नाम
‘योगिराज’ भी
है;यानि योग के रहस्यों का सम्राट ! यहाँ
योग
का
भावार्थ जीवन
की
दैनिक
दिनचर्या में
समस्त
ऊर्जा
का
अपने
सम्पूर्ण स्वास्थ्य के
साथ
संतुलन
बनाये
रखने
से
हैं।
तभी
तो
श्री
कृष्ण
गीता
के
ही अपने एक श्लोक
में
पुनः
स्पष्ट
करते
हैं
–
‘युक्ताहार
विहारस्य, युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य, योगो भवति दु:खहा।।
(गीता / ध्यानयोग
/ मंत्र-17) (योगी का आहार
,विहार
उसकी
समस्त
शारीरिक चेष्टाएँ और
सभी
कर्म; यहाँ तक की
सुप्त
अवस्था
में
जब
वह स्वप्न देखता है,
तब
भी
एक
सच्चे
योगी
का
अपने
ऊपर
नियंत्रण बना
रहता
है।)
हिन्दू
वांग्मय में,
‘योग’
शब्द
का
सर्वप्रथम ‘कठ
उपनिषद’ में प्रयोग हुआ
है। जहाँ ‘योग’ ज्ञानेन्द्रियों के नियंत्रण और मानसिक गतिविधियों के
निवारण
हेतु प्रयुक्त हुआ है। इसका
एक
अर्थ उच्चतम स्थिति प्रदान
करने
वाला
मन
भी
माना गया है। नियंत्रण और
अनुशासन व्यक्ति को
उसके
लक्ष्यों और
उद्देश्यों के
निकट
ले
जाते
हैं
; फिर
मनुष्य
साधारण
हो
या
जटिल
सभी
परिस्थितियों से
स्वयं
को
पार
अनुभव
करता
है।
इसी
एक
सूत्र
के
माध्यम
से
श्री
कृष्ण
अर्जुन
के
संशय
को
दूर
करके
उसे
कर्म
के
मार्ग
पर
अग्रसारित करते
हैं।
योग
के
महत्त्व का
पता
इसी
बात
से
चल
जाता
है
कि
गीता
के
सभी
18 अध्यायों के
नाम
किसी
न
किसी
योग
पर
ही
आधारित
हैं
-जैसे
सांख्य
योग
, कर्मयोग ,ज्ञान
योग
, संन्यास योग
,ध्यान
योग
भक्ति
योग
इत्यादि।
सिर्फ
महाभारत ही
नहीं
उससे
पूर्व
भी
भारत
में योग के महत्त्व के
प्रमाण
मिलते
हैं।
वैदिक
संहिताओं में
अनेक
स्थान
पर
योग
का
उल्लेख
मिलता
है।उपनिषदों के
ऋषियों
का
जीवन
योगमय
होने
के
असंख्य
उदाहरण
उपलब्ध हैं। ऋषि -मुनियों के
जीवन
में
जिस ‘तप’ और ‘तपस्या’
शब्द
का
बार-बार उल्लेख मिलता
है
वह
वास्तव
में
योग
का
ही
एक
स्वरुप
है।
साधना,ध्यान,दर्शन और
तप
योग
की
मुख्य
धारा
से
ही
उदित
हुए
हैं।
साधक
साधु-सन्यासियों ने योग के
महत्त्व को
समझकर
इसे
सभी
के
लिए
सुलभ
बनाया।रामायण काल
में
भी
योगियों और
साधकों
के जीवन में योग
की झलक मिलती है।
श्री
राम
और
उनके
चारों
भाईयों
को गुरु विश्वामित्र ने
अपने
आश्रम
में
जिन
सूत्रों की
शिक्षाएं दी
थीं,
उनमे
योग
भी
एक
है।
स्वयम्बर के
समय
जब
कोई
भी
राजकुमार राजा
जनक
की
पुत्री
सीता
से
विवाह
की
न्यूनतम अहर्ता;
शिव
के
धनुष
को
उठाने
की
चेष्टा
में
सफल
नहीं
हो
पाता
;तब
विश्वामित्र ही
श्री
राम
को
‘प्राणायाम क्रिया’
द्वारा
समस्त
शक्ति
भुजाबल
में
संचारित करने
का
परामर्श देते
हैं।
समय साक्षी है श्री
राम
सफल
होकर
सीता
को
पत्नी
रूप
में
चुनते
हैं।
यह
प्राणायाम क्रिया
आज
भी
योग
के
महत्त्वपूर्ण आठ
सूत्रों में
से
एक
है।
यह योग की ही विशिष्टता
थी कि वह सभी
धर्मों और विचारों के
साथ घुलता -मिलता चला गया। रामायण ,महाभारत और वैदिक काल
के अलावा बौद्ध ,जैन और सिख धर्म
में भी योग को
खुले मन से अपनाया
गया। बौद्ध धर्म के दोनों मतों
हीनयान और महायान में
ध्यान की अनेक विधियां
योग से ही निकली
हैं। स्वयं भगवान बुद्ध ब्रह्म मुहूर्त में जो चलित ध्यान
करते थे; वह भी योग
की ही एक सूक्ष्म
निष्पत्ति है। सिंधु घाटी की सभ्यता में
उत्खननं के दौरान पुरातत्व
विशेषज्ञों को अनेक ऐसी
प्रस्तर मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, जिनका सम्बन्ध धार्मिक संस्कारों और ध्यान-योग
की क्रियाओं से है।
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