योग एवं मानसिक स्वास्थ्य इकाई 2

     योग एवं मानसिक स्वास्थ्य - इकाई 2





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सामान्य एवं असामान्य व्यवहार-:

सामान्य व्यवहार-:

सामान्य व्यक्ति वह है जो सामान्य रूप से अपनी क्रियाओं को करता हो, अपने दैनिक क्रिया कलापों पर विचार पूर्णक निर्णय लेता हो तथा सामाजिक नियमों एवं मान्यताओं का एक सीमा तक पालन करता हो। अर्थात एक सामान्य व्यक्ति सामाजिक, आर्थिक, वैयक्तिक, सांस्कृतिक एवं पारिवारिक सभी प्रकार की परिस्थितियों के साथ समायोजन तथा सन्तुलन बनाये रखता है। असामान्य व्यवहार एवं व्यक्त्तिव को समझने के लिए अति आवश्यक है कि पहले सामान्य व्यवहार एवं व्यक्ति के बारे में समझा जाए। सिमाँण्ड के अनुसार वह व्यक्ति सामान्य व्यक्ति  है जो  भयावह आघातों (traumas)और नैराश्य(depression) उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर लेता है।

1.      सामान्य व्यक्ति में सुरक्षा(security) की उपयुक्त भावना पाई जाती है |वह अपने आपको तो पूरी तरह सुरक्षित समझता है और ही पूरी तरह असुरक्षित। विभिन्न पारिवारिक परिस्थितियों में, सामाजिक और व्यावसायिक परिस्थितियों में वह अपने आपको उसी प्रकार सुरक्षित समझता है जिस तरह से समाज के अधिकांश व्यक्ति अपने आपको सुरक्षित समझते हैं


2.      सामान्य व्यक्ति में उपयुक्त मात्रा में संवेगात्मकता(emotionality) पाई जाती है |वह अपने संवेगों की अभिव्यक्ति(expression) जहां जिस रूप में आवश्यक होती है करता है। वह तो बहुत अधिक संवेगों की अभिव्यक्ति करता है और ही बहुत कम |उसकी संवेगात्मक अभिव्यक्ति समाज के अधिकांश व्यक्तियों की ही भांति होती है। सामान्य व्यक्ति दूसरों के सुख-दुःख में सामान्य ढंग से शामिल होता है।

3.      सामान्य व्यक्ति स्वयं  का मूल्यांकन उतना ही करता है जितना उसकी शारीरिक और मानसिक योग्यताएं होती है वह अपने अन्दर उन्ही इच्छाओं और योग्यताओं का अनुभव करता है जिनको  सामाजिक व्यक्तिगत दृष्टि से भी उपयुक्त समझता है।

4.      सामान्य व्यक्ति अपनी योग्यताओं और सीमाओं से भली -भांति परिचित होता है वह अपनी आवश्यकताओं, इच्छाओं, प्रेरणाओं, भावनाओं, संवेगों, महत्वाकांक्षाओं, लक्ष्यों आदि को समझता है | वह क्या कर सकता है और क्या नहीं इसका उसे पूरा ज्ञान होता है।

5.      सामान्य व्यक्ति का व्यक्तित्व संगठित होता है, अर्थात व्यक्तित्व के तीनों पक्षों इड(id), इगो(ego) और सुपर इगो(super ego) में पर्याप्त मात्रा में संतुलन होता है। सामान्य व्यक्ति के व्यक्तित्व के यह तीनों पक्ष सहयोग से कार्य करते हैं| इनके व्यक्तित्व में स्थिरता पाई जाती है।

6.      सामान्य व्यक्ति अपने समाज की परिस्थितियों और योग्यताओं के अनुसार अपने जीवन लक्ष्य अपने समाज की परिस्थितियों और योग्यताओं के अनुसार अपने जीवन लक्ष्य बनाता है अपने निर्धारत लक्ष्यों की पूर्ति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। और उसका जीवन लक्ष्य समाज के नियमों और मूल्यों के अनुसार होता है।

7.      सामान्य व्यक्ति में पूर्व अनुभवों से लाभ उठाने की योग्यता होतीहै| पहले की गई गलतियों को वह छोड़ता है और सुखद एवं लाभदायक अनुभवों से आगे लाभ उठाता है। सामान्य और असामान्य व्यक्ति स्पष्ट रूप से एक-दूसरे से भिन्न होते हैं  और यह विचार आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व  पहले तक भी प्रचलित था।
8.      सामान्य व्यक्तियों में कानून की मर्यादा की रक्षा तथा सामाजिक परम्पराओं मर्यादाओं के सम्मान का गुण विद्यमान होता है। ये सामाजिक उत्सवों में भाग लेते हैं  साथ ही सामाजिक सांस्कृतिक, धार्मिक, जाति आदि के नियमों की
 
असामान्यता व्यवहार-:
असामान्यता व्यवहार तथा उसकी गंभीरता को समझने के लिए मनोवैज्ञानिक विभिन्न मानकों का प्रयोग करते है. वैसे तो मानसिक रोगी तथा असामान्य व्यवहार को अच्छी तरह समझने और पहचान करने के लिए विशेषज्ञ की मदद ली जाती है
(i)                 समाज-विरोधी व्यवहार (Antisocial Behaviour)
(ii)            मानसिक असंतुलन (Mental Imbalance)
(iii)          अपर्याप्त समायोजन (Poor Adjustment)
(iv)          सूझपूर्ण व्यवहार की कमी (Lack of insightful behaviour)
(v)            विघटित व्यक्तित्व (Disorganized Personality)
(vi)          आत्मज्ञान तथा आत्म-सम्मान की कमी Lack of self knowledge and self-esteem)
(vii)       असुरक्षा की भावना (Feeling of insecurity)
(viii)     संवेगात्मक अपरिपक्वता (Emotional Immaturity)
(ix)         सामाजिक अनुकूलन की क्षमता का अभाव (Lack of social adaptability)
(x)            तनाव एवं अतिसंवेदनशीलता (Tension and Hypersensitivity)
(xi)         पश्चाताप का अभाव (Lack of Remorse)

सामान्य एवं असामान्य मनोविज्ञान व्यवहार में अन्तर-:
          परिस्थिति  की अनुकूलता के आधार पर भी अन्तर किया जाता है। जो व्यवहार परिस्थिति के अनुकूल होता है उसे सामान्य कहते हैं और जो व्यवहार परिस्थिति के अनुकूल नहीं होता है उसे असामान्य कहते हैं। जैसे-किसी की मृत्यु पर शोक प्रकट करना एक सामान्य व्यवहार है और खुशी प्रकट करना एक असामान्य व्यवहार है।
•          संवेगात्मक परिपक्वता(emotional maturity) के आधार पर-संवेगात्मक परिपक्वता का अर्थ संवेगात्मक नियंत्रण एवं संवेगात्मक स्थिरता(stability) से है। सामान्य व्यक्ति जो अपने संवेगों जैसे क्रोध, भय, खुशी आदि पर नियंत्रण रखता है और दूसरी ओर असामान्य व्यक्ति जो अपने संवेगों पर नियंत्रण नहीं  रखता है। कक्षा में शिक्षक द्वारा क्रोध पर नियंत्रण रखना एक सामान्य प्रक्रिया है लेकिन शिक्षक का अपने संवेगों पर से नियंत्रण खो देना, अध्यापन कार्य बाधित करके उस पर आक्रमण करना, प्रहार करना एक असामान्य व्यवहार है।
•          नैतिक (moral)दृष्टिकोण- के अनुसार, सामान्य व्यक्ति का व्यवहार उसकी संस्कृति(culture), धर्म और नैतिक नियमों के अनुसार होता है तथा असामान्य व्यक्ति का व्यवहार इसके अनुसार नहीं होता है। कभी-कभी नैतिक और अनैतिक व्यवहार को परिभाषित करने में कठिनाई होती है। क्योंकि एक समाज में जो नैतिक है वहीं दूसरे समाज में अनैतिक है, जैसे-किसी लड़की को भगाकर ले जाना सामान्यतः  अनैतिक व्यवहार है जबकि किसी जनजाति में लड़की भगाकर ले जाना नैतिक व्यवहार है।
•          सामाजिक दृष्टिकोण-इस दृष्टिकोण के अनुसार जिस व्यक्ति का व्यवहार सामाजिक नियमों , प्रथाओं(traditions), रीति-रिवाजों(customs) के अनुरूप होता है, वह व्यक्ति सामान्य होता है तथा जिस व्यक्ति का व्यवहार इसके अनुरूप नहीं होता है उसे असामान्य कहा जाता है। उस व्यक्ति को भी असामान्यता की श्रेणी में रखा जाता है जो समाज कल्याण में बाधक है, जो व्यक्ति समाज के लिए हितकारी कार्य करता है उसे सामान्य कहा जाता है। प्रत्येक समाज के सामाजिक नियम अलग-अलग होते हैं।
•          सांस्कृतिक (cultural)दृष्टिकोण- के अनुसार वह व्यक्ति सामान्य व्यक्ति है जो अपनी संस्कृति के नियमों , मूल्यों, आदर्शों आदि के अनुसार व्यवहार करता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति इन नियमों के विपरीत कार्य करता है उसे असामान्य व्यक्ति कहेंगे प्रत्येक संस्कृति में कुछ कुछ परिवर्तन होते रहते हैं। अतः एक परिस्थिति में जो व्यवहार सामान्य है वहीं दूसरी परिस्थिति में असामान्य।
•          मानसिक सन्तुलन(mental balance) के आधार पर- सामान्य तथा असामान्य के बीच भेद करने का यह एक मुख्य आधार है। जिस व्यक्ति का मानसिक सन्तुलन बना रहता है उसे सामान्य और जिस व्यक्ति का मानसिक सन्तुलन गड़बड़ हो जाता है या व्यक्ति मानसिक सन्तुलन खो बैठता है उसे असामान्य कहते हैं। यूँ तो समाज के प्रत्येक व्यक्ति में कुछ कुछ चिन्ता आदि के लक्षण देखे जाते हैं | किसी काम को करने में थोडी़ चिन्ता का होना आवश्यक है। इन्हें हम असामान्यता की श्रेणी में नहीं रख सकते हैं।
•          व्यक्ति परिपक्वता(maturity) का दृष्टिकोण- प्रत्येक व्यक्ति को अपने चारों ओर के वातावरण में ,अपनी आवश्यकताओं के अनुसार, उसमें रहने वाले लोगों के साथ समायोजन करना पड़ता है। जो व्यक्ति इस प्रकार का समायोजन करने में सफल हो जाते हैं उन्हें सामान्य व्यक्ति कहते हैं और जो व्यक्ति उस वातावरण या उस में रहने वाले व्यक्तियों के साथ अपना समायोजन करने में असफल रह जाते हैं उन्हें असामान्य व्यक्ति कहते हैं। दोषपूर्ण समायोजन भी असामान्यता का मुख्य लक्षण है।
•          सूझपूर्ण (insightful)व्यवहार- सामान्य व्यक्ति को यह बात स्पष्ट होती है कि वह क्या कर रहा है, कैसे कर रहा है, उसे कौन सा व्यवहार किस परिस्थिति में करना चाहिए ऐसे व्यक्तियों को नैतिक-अनैतिक, सही गलत का स्पष्ट ज्ञान होता है जबकि असामान्य व्यवहार में इनकी कमी देखी जाती है।
•          दोष- भाव(guilt feeling) के आधार पर- सामान्य तथा असामान्य के बीच भेद समझने का आधार दोष भाव तथा पश्चाताप भाव है। गलती करता मनुष्य की कमजोरी है। अतःकिसी गलत ,अनैतिक या असामाजिक कार्य किसी कारणवश हो जाने के बाद यदि व्यक्ति में दोष एवं पश्चाताप के भाव हो तो वह सामान्य व्यक्ति होगा। दूसरी ओर गलत, अनैतिक या असामाजिक कार्य करने के बाद भी उसे दोष भाव और उसके लिए पश्चाताप  करें तो अवश्य ही वह असामान्य व्यक्ति होगा।
•          समायोजन(adjustment) के आधार  पर- सामान्य तथा असामान्य व्यक्ति की पहचान का एक ठोस आधार समायोजन है। समायोजन का अर्थ है- अपने वातावरण की माँगों, और आवश्यकताओं के बीच सन्तुलन। सामान्य व्यक्ति वह है, जो कभी अपनी आन्तरिक माँगों में परिवर्तन लाकर और कभी बाह्य माँगों में परिवर्तन लाकर संतुलित जीवन जीने में सफल होता है। दूसरी और असामान्य व्यक्ति वह है जो अपनी आन्तरिक माँगों तथा अपने वातावरण की माँगों के बीच समझौता करने एवं संतुलित जीवन जीने में विफल हो। फलतः अपने परिवार तथा समाज के सदस्यों के साथ उनके सम्बन्ध तनावपूर्ण, संघर्षपूर्ण तथा कलहपूर्ण होते हैं।
•          वास्तविकता का ज्ञान- सामान्य व्यक्तियों को वास्तविकता का पूर्ण ज्ञान होता है। वह हमेशा अपने व्यवहार एवं क्रियाओं को सामाजिक मानकों की वास्तविकता के अनुकूल बनाये रखता है। उन्हें काल्पनिक सच्चाई एकदम पसन्द नहीं होती हैं फलतः उनका व्यवहार, भ्रम, विभ्रम से ग्रसित नहीं होता है। दूसरी ओर असामान्य व्यक्तियों का व्यवहार काल्पनिक एवं अवास्तविकताओं से भरा होता है। असामान्य व्यक्ति को यह ज्ञान नहीं रहता है कि सामाजिक आदर्श  क्या है? मानक क्या है? तथा उसकी हकीकत क्या है। उन्हें तो बस अपनी काल्पनिक दुनिया से मतलब होता है। वे लम्बी उडा़ने भरते रहते हैं। इनका व्यवहार-विभ्रम से इतना ग्रसित रहता है कि उनके व्यवहार में वास्तविकता उनके पास फटकती तक नहीं है।
•          अपनी देखभाल- सामान्य व्यक्तियों का व्यवहार अपनी देखभाल एवं सुरक्षा के लिए पर्याप्त होता है। वह ऐसा व्यवहार करता है जिससे उसके अहं को चोट पंहुचे  तथा उसका मानसिक स्वास्थ्य बना रहे। वह हर संभव कोशिश करता है कि उसका  व्यक्तित्व संतुलित एवं स्वस्थ बना रहे। वह कभी कोई ऐसा व्यवहार नहीं करता है कि उसका ही अस्तित्व खते में पड़ जाए। दूसरी असामान्य व्यक्तियों के व्यवहार में उतनी कुशलता नहीं होती है कि वह अपनी देखभाल कर सके एवं अपने आप को पर्याप्त सुरक्षित रख सके। वास्तव में ऐसे लोगों की देखभाल परिवार या समाज के अन्य लोगों को ही करनी पड़ती है-
 

मानसिक स्वास्थ्य के तत्व लिखें ? सामान्य एवं असामान्य व्यवहार के भेद का वर्णन करें?

      (विभिन्न प्रसामान्यक, असामान्यता के प्रारूपों का संक्षिप्त परिचय)

(यह प्रश्न इकाई 1 एवं 2 दोनों में है अतः इसका ही अनुसरण करें)
 

मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में मानसिक स्वास्थ्य

मानसिक स्वास्थ्य के संबंध में कुछ प्रमुख मनोवैज्ञानिकों के विचारों एवं उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों के अवलोकन एवं विश्लेषण से मनौवैज्ञानिक दृष्टि से मानसिक स्वास्थ्य को समझने में मदद मिलती है, मानसिक स्वास्थ्य की मनोवैज्ञानिक दृष्टि स्पष्ट होती है।

  1. मनोगत्यात्मक दृष्टि
  2. व्यवहारवादी दृष्टि
  3. मानवतावादी दृष्टि
  4. संज्ञानात्मक दृष्टि

मनोगत्यात्मक दृष्टि

मनोगत्यात्मक दृष्टि मानसिक स्वास्थ्य का विचार व्यक्तित्व की गतिकी के माध्यम से करती है। व्यक्तित्व की गत्यात्मकता को दृष्टिगत रखते हुए तीन प्रकार की दृष्टियॉं इस संदर्भ में प्रमुख हैं-

  1. मनोविश्लेषणवादी दृष्टि- उदाहरण के लिए यदि हम प्रस़िद्ध मनोविश्लेषणवादी मनोवैज्ञानिक सिगमण्ड फ्रायड के व्यक्तित्व सिद्वान्त में मन एवं मानसिक स्वास्थ्य की अवधारणा पर विचार करें तो हम पाते हैं कि फ्रायड ने उसी व्यक्ति को मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति की संज्ञा दी है जो कि अपने जीवन में द्वन्द्वों, चिन्ताओं से रहित है तथा मनोरचनाओं का न्यूनतम उपयोग जिसके जीवन में दिखाई देता है। दूसरे शब्दों में फ्रायड के अनुसार जिस व्यक्ति की अहॅंशक्ति पर्याप्त मात्रा में बढ़ी होती है और जो व्यक्ति अपने मन के उपाहं की इच्छाओं एवं पराहं के फैसलों के बीच अहंशक्ति के माध्यम से समायोजन सामंजस्य बिठाने में पर्याप्त रूप से सक्षम होता है उसे ही मानसिक रूप से स्वस्थ कहा जा सकता है।
  2. विश्लेषणात्मक दृष्टिवहीं दूसरी ओर प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल युग के अनुसार जब तक किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं में इस प्रकार का स्थिर समायोजन नहीं होता कि जिससे उसके वास्तविक आत्मन् को चेतन में उद्भूत होने का अवसर मिले तब तक उस व्यक्ति को मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि व्यक्तित्व के सभी पहलुओं में जब तक सामंजस्य नहीं होगा एवं वे साथ साथ उचित अनुपात में विकसित नहीं होंगे तब तक उनके अस्तित्व के भीतर दबे वास्तविक आत्मन् का बाहर आना संभव नहीं है। इसके लिए युंग व्यक्तित्ववादी विश्लेषण की वकालत करते हैं। व्यक्तित्व संबंधी युंग का विभाजन एंव विचार उल्लेखनीय है। वे व्यक्तित्व को मोटे तौर पर अंतर्मुखी (introvert) और बहिर्मुखी (extrovert) दो भागों में विभाजित करते हैं। अंतर्मुखी व्यक्तित्व, दूसरों में कम रूचि लेता है और आत्मकेंद्रित क्रियाओं में सर्वाधिक संतोष का अनुभव करता है। ये लोग कोमल मन वाले, विचार प्रधान, कल्पनाशील तथा आदर्शवादी होते हैं। अत: इन लोगों का झुकाव आंतरिक जीवन की ओर होता है। इसके विपरीत बहिर्मुखी व्यक्ति बाहर की वस्तुओं में अधिक रूचि लेता है तथा सामाजिक घटनाओं एवं परिस्थितियों मे अधिक सुखदद एवं संतोषजनक अनुभव पाता है। वह व्यवहारवादी होता है तथा कठोर मन वाला यथार्थवादी होता है। वास्तव में अंतर्मुखता और बहिर्मुखता के बीच कोई वास्तविक सीमारेखा नहीं हैं। स्वयं युंग के शब्दों मेंप्रत्येक व्यक्ति में अंतर्मुखता और बहिर्मुखता के अंश रहते हैं और किसी व्यक्ति में इन दोनों में से किसी एक की सापेक्ष प्रधानता से व्यक्तित्व का प्रकार बनता है।युंग के अनुसार जिस व्यक्ति में अंतर्मुखी एवं बहिर्मुखी प्रवृत्ति में सामंजस्य होता है वही मानसिक स्वास्थ्य की धुरी पर चलने वाला व्यक्ति कहा जाना चाहिए। कार्ल युंग के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में सामान्यत: व्यक्तित्व का आधा भाग नर और आधा भाग नारी का होता है। अर्थात् प्रत्येक व्यक्तित्व में स्त्री एवं पुरूष की प्रवृत्तियॉं पायी जाती हैं और इन दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों में सामंजस्य मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक है।
  3. व्यक्तित्ववादी दृष्टिएक अन्य प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एडलर जिन्होंने व्यक्तिगत मनोविज्ञान के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है उनके अनुसार जो व्यक्ति जितना अधिक सामाजिक कार्यों में रूचि लेता है जिस व्यक्ति के जितने अधिक मित्र होते हैं एवं जो सामाजिक होता है वह व्यक्ति उतना ही मानसिक रूप से स्वस्थ होता है। क्योंकि ऐसा व्यक्ति अपने को समाज का एक अभिन्न अंग समझता है एवं उसमें हीनभावना नहीं होती है। एडलर के अुनसार जब तक व्यक्ति के मन में हीनता की भावना भरी रहती है वह मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं हो पाता है। हीनभावना को बाहर करने के लिए व्यक्ति को सामाजिक होना चाहिए एवं उसे इसके लिए जरूरी कुशलता हासिल करने हेतु पर्याप्त रूप से सृजनात्मक भी होना चाहिए।

व्यवहारवादी दृष्टि

व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य उसके व्यवहार द्वारा निर्धारित होता है। व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों में वाटसन, पैवलॉव, स्कीनर आदि प्रमुख हैं। यदि व्यक्ति का व्यवहार जीवन की सभी सम विषम परिस्थतियों में समायोजित है तो व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ कहा जाता है वहीं यदि व्यक्ति का व्यवहार कुसमायोजित होता है तो वह मानसिक रूप से अस्वस्थ कहा जाता है। व्यक्ति के व्यवहार का समायोजित अथवा कुसमायोजित होना उसके सीखने की प्रक्रिया एवं सही एवं गलत व्यवहार के चयन पर निर्भर करता है। यदि व्यक्ति ने सही अधिगम प्रक्रिया के तहत उपयुक्त व्यवहार करना सीखा है तो वह मानसिक रूप से अवश्य ही स्वस्थ होगा। यदि गलत अधिगम प्रक्रिया के तहत व्यवहार करना सीखा है तो वह अस्वस्थ कहलायेगा। इनके अनुसार व्यक्ति के व्यवहार पर वातावरण का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है, दूसरे शब्दों में व्यक्ति के व्यवहार का निर्धारण वातावरण एवं व्यक्ति के बीच होने वाली अंतक्रिया से होता है। व्यवहारवादियों के अनुसार यदि उचित वातावरण में सही व्यवहार सीखने का अवसर प्रत्येक व्यक्ति को मिले तो वह मानसिक रूप से अवश्य ही स्वस्थ होगा।

मानवतावादी दृष्टि

मानवतावादी दृष्टि में भी मानसिक स्वास्थ्य की अवधारणा पर विचार किया गया है। इस उपागम के मनोवैज्ञानिकों में अब्राहम मैस्लों एवं कार्ल रोजर्स प्रमुख हैं। इनके अनुसार प्रत्येक मनुष्य में अपने स्वाभाविक विकास की सहज प्रवृत्ति होती है। साथ ही प्रत्येक व्यक्ति में अपनी प्रतिभा एवं संभावनाओं की अभिव्यक्ति की जन्मजात इच्छा प्रकट अथवा प्रसुप्त रूप में विद्यमान होती है यह उसकी अंत:शक्ति का परिचायक होती है। जब तक यह सहज विकास करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को अपनी अभिव्यक्ति करने का मौका उचित रूप से मिलता रहता है तब तक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के धनात्मक विकास की ओर अग्रसर रहता है। यदि यह निर्बाध रूप से जारी रहता है तो अंतत: व्यक्ति अपनी सभी प्रतिभाओं एवं संभावनाओं से परिचित हो जाता है एक प्रकार से उसे आत्मबोध हो जाता है। इस रूप में ऐसे व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य उत्तरोत्तर उन्नति की ओर अग्रसर कहा जायेगा। वहीं दूसरी ओर यदि किन्हीं कारणों से यदि सहज प्रवृत्ति अवरूद्ध हो जाती है तो व्यक्ति में मानसिक अस्वस्थता के लक्षण प्रकट होने लगते हैं।

संज्ञानात्मक दृष्टि

यह दृष्टि मानसिक स्वास्थ्य की मनोवैज्ञानिक दृष्टियों में सबसे नवीन है। इस विचारधारा के मनोवैज्ञानिकों में एरोन टी. बेक एवं एलबर्ट एलिस प्रमुख हैं। इनके अनुसार जिस व्यक्ति के विचार जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में सकारात्मक होते हैं जो तर्कपूर्ण ढंग से धारणाओं को विश्वासों को अपने जीवन में स्थान देता है। वह मानसिक रूप से स्वस्थ कहा जाता है। व्यक्ति का मानसिक स्वस्थता उसके चिंतन के तरीके पर निर्भर करती है। चिंतन के प्रमुख रूप से तीन तरीके हैं पहला जीवन की हर घटना को सकारात्मक नजरिये से निहारना एवं दूसरा जीवन की प्रत्येक घटना को नकारात्मक तरीके से निहारना। इसके अलावा एक तीसरा तरीका है जो कि चिंतन का वास्तविक तरीका है जिसमें व्यक्ति जीवन में घटने वाली प्रत्येक घटना का पक्षपात रहित तरीके से विश्लेषण करता है जीवन के धनात्मक एवं नकारात्मक पहलुओं में किसी के भी प्रति उसका अनुचित झुकाव नहीं होता है। मनोवैज्ञानिकों ने चिंतन के इस तीसरे तरीके को ही सर्वाधिक उत्तम तरीका माना है। उपरोक्त तरीकों के अलावा भी चिंतन के अन्य तरीके भी होते हैं परन्तु उनका संबंध व्यक्ति की मानसिक उन्नति एवं विकास से होता है जैसे सृजनात्मक चिंतन आदि।


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