योग एवं सांस्कृतिक समन्यवय एवं जैन परम्परा - इकाई 5

योग एवं सांस्कृतिक समन्यवय एवं जैन परम्परा-इकाई 5



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जैन योग परम्परा, परिभाषा, योग का साध्य-;

भारतवर्ष में जिस समय बौद्ध दर्शन का विकास हो रहा था उसी समय जैन दर्शन भी विकसित हो रहा था। दोनों दर्शन छठी शताब्दी में विकसित होने के कारण समकालीन दर्शन कहे जा सकते हैं।


जैन मत के विकास और प्रचार का श्रेय अन्तिम तीर्थंकर महावीर को दिया जाता है। इन्होंने ने ही जैन धर्म को पुष्पित एवं पल्लवित किया। जैन मत मुख्यत: महावीर के उपदेशों पर ही आधारित है।

जैन दर्शन का साहित्य अत्यन्त विशाल है। आरम्भ मे जैनों का दार्शनिक साहित्य प्राकृत भाषा में था। आगे चलकर जैनों ने सस्ंकृत को अपनाया जिसके फलस्वरूप जैनों का साहित्य संस्कृत में विकसित हुआ। संस्कृत मेंतत्त्वार्थाधिगम सूत्रअत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ है।जैन धर्म में दो सम्प्रदाय स्वीकार किये गये हैं, पहला दिगम्बर और दूसरा श्वेताम्बर। जो श्वेत वस्त्रों को धारण करते हैं, उसे श्वेताम्बर सम्प्रदाय समझा जाता है तथा जो नग्न अवस्था में रहते हैं, उसे दिगम्बर सम्प्रदाय समझा जाता है।दिगम्बर सम्प्रदाय में धार्मिक नियमों की उग्रता दिखाई पड़ती है, पर श्वेताम्बर ने मानव कमजोरियों का स्मरण कर कुछ अंशों में कठोर नियमों में शिथिलता ला दी है।जैन धर्म के वास्तविक एवं अन्तिम तीर्थंकर महावीर का जीवन चरित्र योग का ज्वलंत उदाहरण है। इन्होंने पूर्व जन्मों में संस्कार वश, युवावस्था में ही विरक्त होकर, गृहत्याग करके तपस्या करते हुए बारह वर्ष से अधिक समय तक मौन धारण करके, अत्यन्त कठोर तप का अनुसरण कर, योगाभ्यास द्वारा आत्मज्ञान को प्राप्त कर निर्वाण लाभ किया। इस प्रकार उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट होता है कि जैन धर्म में भी योग-विद्या का स्वरूप किसी किसी रूप में अवश्य प्राप्त होता है।जैन सम्प्रदाय में यह स्वीकार किया गया है कि निर्मल मन द्वारा ही आत्मस्वरूप प्रकाशित हो सकता है।पातंजल योगदर्शन में योग का लक्षण बताते हुए कहा हैचित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है।  

योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: (यो0 सू0 1/2)

 इसी को जैन सम्प्रदाय में इस प्रकार कहा है- जिसका मन रूपी जल विषय कषाय रूपी प्रचण्ड पवन से नहीं चलायमान होता है, उसी भव्य जीव की आत्मा निर्मल होती है एवं शीघ्र प्रत्यक्ष हो जाती है।
जिसने शीघ्र ही मन को वश में करके यह आत्मा परमात्मा में नहीं मिलाया, वह योग से क्या कर सकता है? इसी बात को और स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिन पुरुषों ने विषय कषायों में जाता हुआ मन कर्म रूपी अंजन से रहित भगवान् में युक्त किया ( वे ही मोक्ष कारण के अनुयायी हैं) यही मोक्ष का कारण है, दूसरा अन्य कोई भी तन्त्र अथवा मन्त्र नहीं है।
आशय यह है कि जो कोई भी संसारी जीव शुद्धात्मभावना से उल्टे विषयकषायों में जाते हुए मन को वीतराग-निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा पीछे हटाकर निज शुद्धात्म द्रव्य में स्थापन करता है, वही मोक्ष पाता है। दूसरा कोई मन्त्र, तन्त्रादि में चतुर होने पर भी मोक्ष का अधिकारी नहीं होता है।जैन दर्शन में यम-नियम निरुपणजिस प्रकार अन्य योग ग्रन्थों में यम-नियम का पालन प्रथमत: अनिवार्य माना गया है, उसी प्रकार जैन-शास्त्र में भी पंचमहाव्रत का अनुष्ठान सर्वप्रथम आवश्यक रूप से अपेक्षित है। ये पंचमहाव्रत इस प्रकार हैं- 1. अंहिसाजन्यव्रत, 2. सत्यव्रत, 3. अस्तेयव्रत, 4. ब्रह्मचर्यव्रत, 5. अपरिग्रहव्रत।तत्त्वार्थसूत्र में इन व्रतों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, ब्रह्मचर्य, परिग्रह इनसे मन, वचन, काय का निवृत्त होना ही व्रत है।

अब यहाँ पंच-महाव्रतों का वर्णन किया जा रहा है-

अंहिसाव्रतमनुष्य, जानवर, पक्षी अथवा स्थावर प्राणियों को मन, वचन और काय से किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचाना अंहिसा है। मूलाचार में इस व्रत का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि एकेन्द्रिय आदि जीव पाँच प्रकार के होते हैं। पाप भीरु को सम्यक् प्रकार से मन, वचन, कायपूर्वक सर्वत्र इन जीवों की कदापि हिंसा नहीं करनी चाहिए।सत्यव्रतसभी कालों में सर्वदा प्रिय, परिणाम में सुखद, कल्याणकारी वचन बोलना सत्य महाव्रत है। सत्यव्रत का स्वरूप निश्चित करते हुए नियमसार में उल्लिखित है कि रागद्वेष अथवा मोह से होने वाले मृषा भाषा के परिणाम को जो साधु छोड़ता है, उसी को सदा दूसरा व्रत होता है।

अस्तेयव्रतअस्तेयव्रत का निरुपण करते हुए मूलाचार में कहा है कि ग्राम में, नगर में तथा अरण्य में जो भी स्थूल सचित्त और बहुल तथा इनसे प्रतिपक्ष सूक्ष्म अचित्त और अल्प वस्तु है उनका बिना किसी के दिये मन, वचन, कायपूर्वक त्याग करना चाहिए।

ब्रह्मचर्यव्रत-ब्रह्मचर्यव्रत के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए निमयसार में कहा गया है कि स्त्रियों का रूप देखकर उनके प्रति वांछाभाव की निवृत्ति अथवा मैथुन संज्ञारहित जो परिणाम है वह ब्रह्मचर्य व्रत है। ब्रह्मचर्य व्रत का स्थान साधना मार्ग में महत्त्वपूर्ण है। मूलाचार में ब्रह्मचर्य व्रत के फल का उल्लेख करते हुए कहा है कि चिरकाल तक ब्रह्मचर्य का उपासक शेषकर्म को दूर करके क्रम से विशुद्ध होता हुआ शुद्ध होकर सिद्ध गति को प्राप्त कर लेता है। 

अपरिग्रह मूलाचार में अपरिग्रहव्रत के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि ग्राम, नगर, अरण्य, स्थूल सचित्त और बहुत तथा स्थूलादि से विपरीत सूक्ष्म अचित्त ऐसे अन्तरंग, बहिरंग परिग्रह को मन, वचन, काय द्वारा छोड़ देवें।
बंध मोक्ष प्रणाली के सात अंग-
मोक्ष का अर्थ जन्म और मरण के चक्र से मुक्त होने अलावा सर्वशक्तिमान बन जाना है। सनातन धर्म में मोक्ष तक पहुंचने के सैंकड़ों मार्ग बताए गए हैं। गीता में उन मार्गों को 4 मार्गों में समेटा है। ये 4 मार्ग हैं- कर्मयोग, सांख्ययोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग। हिन्दू धर्म अनुसार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से मोक्ष प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का अंतिम लक्ष्य माना गया है। अधिकतर लोग अर्थ और काम में उलझकर ही मर जाते हैं। कभी जिंदा थे मरते वक्त इसका पता चलता है। आओ जानते हैं मोक्ष प्राप्त करने के प्रमुख 7 मार्गों के बारे में, जिनमें से किसी एक पर चलकर आपको भी मिलेगा मोक्ष।
1.      भक्ति 2. योग 3. ध्यान 4. तंत्र 5. ज्ञान 6. कर्म 7. आचरण :

भक्ति : भक्ति भी मुक्ति का एक मार्ग है। भक्ति भी कई प्रकार ही होती है। इसमें श्रवण, भजन-कीर्तन, नाम जप-स्मरण, मंत्र जप, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, पूजा-आरती, प्रार्थना आदि शामिल हैं।
 योग : योग अर्थात मोक्ष के मार्ग की सीढ़ियां। पहली सीढ़ी यम, दूसरी नियम, तीसरी आसन मुद्रा, चौथी प्राणायाम क्रिया, पांचवीं प्रत्याहार, छठी धारणा, सातवीं ध्यान और आठवीं अंतिम सीढ़ी समाधि अर्थात मोक्ष।
 ध्यान : ध्यान का अर्थ शरीर और मन की तन्द्रा को तोड़कर होशपूर्ण हो जाना। ध्यान कई प्रकार से किया जाता है। इसका उद्देश्य साक्षीभाव में स्थित होकर मोक्ष को प्राप्त करना होता है। ध्यान जैसे-जैसे गहराता है, व्यक्ति साक्षीभाव में स्थित होने लगता है।
 तंत्र : मोक्ष प्राप्ति का तांत्रिक मार्ग भी है। इसका अर्थ है कि किसी वस्तु को बलपूर्वक हासिल करना। तंत्र भोग से मोक्ष की ओर गमन है। इस मार्ग में कई तरह की साधनाओं का उल्लेख मिलता है। तंत्र मार्ग को वाममार्ग भी कहते हैं। तंत्र को गलत अर्थों में नहीं लेना चाहिए।
 ज्ञान : साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञान मार्ग है। ईश्वर, ब्रह्मांड, जीवन, आत्मा, जन्म और मरण आदि के प्रश्नों से उपजे मानसिक द्वंद्व को एक तरफ रखकर निर्विचार को ही महत्व देंगे, तो साक्षीभाव उत्पन्न होगा। वेद, उपनिषद और गीता के श्लोकों का अर्थ समझे बगैर यह संभव नहीं।
 कर्म और आचरण : कर्मों में कुशलता लाना सहज योग है। भगवान श्रीकृष्ण ने 20 आचरणों का वर्णन किया है जिसका पालन करके कोई भी मनुष्य जीवन में पूर्ण सुख और जीवन के बाद मोक्ष प्राप्त कर सकता है। 20 आचरणों को पढ़ने के लिए गीता पढ़ें। भाग्यवादी नहीं कर्मवादी बनें।

मोक्ष का सामान्य अर्थ दुखों का विनाश है। दुखों के आत्यन्तिक निवृत्ति को ही मोक्ष या कैवल्य कहते हैं। प्राय: सभी भारतीय दर्शन यह मानते हैं कि संसार दुखमय है। दुखों से भरा हुआ है। किन्तु ये दुख अनायास नहीं है, इन दुखों का कारण है। उस कारण को समाप्त करके हम सभी प्रकार के दुखों से मुक्त हो सकते है। दुख मुक्ति की यह अवस्था ही मोक्ष है, मुक्ति है, निर्वात है, अपवर्ग है, कैवल्य है। और यही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। जब तक इस लक्ष्य की प्राप्ति नही हो जाती तब तक संसार में जन्म मरण का चक्र चलता रहेगा और जीव दुख भोगता रहेगा। भारतीय दर्शन सिर्फ मोक्ष की सैद्धान्तिक चर्चा ही नहीं करता बल्कि उसकी प्राप्ति के व्यावहारिक उपाय भी बताता है इसीलिए भारतीय दर्शन कोरा सैद्धान्तिक दर्शन होकर एक व्यावहारिक दर्शन है। यद्यपि विभिन्न दर्शनों में मोक्ष के स्वरूप एवं उसके प्राप्ति के उपाय को लेकर मतेभेद है किन्तु चार्वाक को छोड़कर सभी भारतीय दर्शन इस बात में एक मत हैं कि-
मोक्ष का विचार बन्धन से जुड़ा हुआ है। आत्मा का सांसारिक दुखों से ग्रस्त होना ही उसका बन्धन है और इन दुखों से सर्वथा मुक्त हो जाना मोक्ष। व्यावहारिक जीवन में प्राय: हर कोई कहता है कि मैं दुखी हँु, मुझे दुख है। यहाँ प्रश्न यह है किमैंका अर्थ क्या है? दुख क्या है? दुख क्यों है दुख का अन्त सम्भव है या नहीं? इन सब प्रश्नों पर भारतीय दर्शन में गहराई से विचार किया गया है | अधिकांश भारतीय दर्शन बन्धन और मोक्ष सम्बन्धी उपर्युक्त विचार से सहमत है। यदि कोई अपवाद है तो वह है- चार्वाक दर्शन।


कर्म सिद्धांत,चित्त वृत्ति निरोध के साधन-:
 


चित्त की वृत्तियों को रोकने के जो उपाय बतलाए गए हैं वह इस प्रकार हैं:- अभ्यास और वैराग्य, ईश्वर का प्रणिधान, प्राणायाम और समाधि, विषयों से विरक्ति आदि। यह भी कहा गया है कि जो लोग योग का अभ्याम करते हैं, उनमें अनेक प्रकार को विलक्षण शक्तियाँ जाती है जिन्हें 'विभूति' या 'सिद्धि' कहते हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठों योग के अंग कहे गए हैं, और योगसिद्धि के लिये इन आठों अंगों का साधन आवश्यक और अनिवार्य कहा गया है। इनमें से प्रत्येक के अंतर्गत कई बातें हैं। कहा गया है जो व्यक्ति योग के ये आठो अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के क्लेशों से छूट जाता है, अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है और अंत में कैवल्य (मुक्ति) का भागी बनता है। सृष्टितत्व आदि के संबंध में योग का भी प्रायः वही मत है जो सांख्य का है, इससे सांख्य को 'ज्ञानयोग' और योग को 'कर्मयोग' भी कहते हैं।
महर्षि पतंजलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' के रूप में परिभाषित किया है। योगसूत्र में उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है। अष्टांग, आठ अंगों वाले, योग को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है। योग के ये आठ अंग हैं:

1.      यम : पांच सामाजिक नैतिकता

2.      नियम: पाँच व्यक्तिगत नैतिकता

3.      आसन: योगासनों द्वारा शारीरिक नियंत्रण
4.      प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण
5.      प्रत्याहार: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना
6.      धारणा: एकाग्रचित्त होना
7.      ध्यान: निरंतर ध्यान
8.      समाधि: आत्मा से जुड़ना, शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था

1.    ग्रहस्थो के लिए निर्धारित योगांग - रत्नत्रय, अणुव्रत, गुणव्रत ,शिक्षाव्रत, षडावय, युक्ताहारविहार
2.    आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा,ध्यान
3.    मुनियो के लिए निर्धारित योगांग - रत्नत्रय, महाव्रत, समिति,गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय-
उपरोक्त 3 प्रश्नो के उत्तर के लिए अपनी कक्षा में बताई गयी पुस्तक या नोट्स का इस्तेमाल करे
 













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