योग एवं मानसिक स्वास्थ्य - इकाई 3
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मनोविज्ञान में व्यक्तिव
की अवधारणा, प्रमुख सिद्धांतो का संक्षिप्त परिचय- मनोविश्लेष्ण, शीलगुण सिद्धांत,
अधिगम सिद्धांत
व्यक्तित्व का अर्थ/परिभाषा-
प्रत्येक व्यक्ति में कुछ विशेष गुण या विशेषताएं होती हो जो दूसरे व्यक्ति में नहीं होतीं। इन्हीं गुणों एवं विशेषताओं के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे से भिन्न होता है। व्यक्ति के इन गुणों का समुच्चय ही व्यक्ति का व्यक्तित्व कहलाता है।
व्यक्तित्व एक स्थिर अवस्था न होकर एक गत्यात्मक समष्टि है जिस पर परिवेश का प्रभाव पड़ता है और इसी कारण से उसमें बदलाव आ सकता है। व्यक्ति के आचार-विचार, व्यवहार, क्रियाएं और गतिविधियों में व्यक्ति का व्यक्तित्व झलकता है। व्यक्ति का समस्त व्यवहार उसके वातावरण या परिवेश में समायोजन करने के लिए होता है।
व्यक्तित्व का अंग्रजी अनुवाद ‘Personality’ है
जो लैटिन शब्द Persona से बना है तथा जिसका अर्थ मुखौटा होता है, जिसे नाटक करते समय कलाकारों द्वारा पहना जाता था। इस शाब्दिक अर्थ को ध्यान में रखते हुए व्यक्तित्व को बारही वेशभूषा और और दिखावे के आधार पर परिभाषित किया गया है। इसे मनोवैज्ञानिकों द्वारा अवैज्ञानिक घोषित किया गया और तदन्तर अनेक परिभाषाएँ दी गई है। परन्तु ऑलपोर्ट द्वारा दी गई परिभाषा को सर्वाधिक मान्यता प्रात्त है।
ऑलपोर्ट (1937) के अनुसार, “व्यक्तित्व व्यक्ति के भीतर उन मनोशारीरिक तन्त्रो का गतिशील या गत्यात्मक संगठन है जो वातावरण में उसके अपूर्व समायोजन को निर्धारित करते है।“
ऑलपोर्ट की इस परिभाषा मे व्यक्तित्व के भीतरी गुणों तथा बाहरी गुणो को यानी व्यवहार को सम्मिलित किया गया है। परन्तु ऑलपोर्ट ने भीतरी गुणों पर अधिक बल दिया है। व्यक्तित्व को इस रूप में विश्लेषित किया जा सकता है
1) मनोशारीरिक
तन्त्र, 2) गत्यात्मक संगठन ,3) संगतता ,4)वातावरण
में अपूर्व समायोजन का निर्धारण
- मनोशारीरिक तन्त्र – व्यक्तित्व एक ऐसा तन्त्र है जिसके मानसिक तथा शारीरिक दोनो ही पक्ष होते है। यह तन्त्र ऐसे तत्वो का एक गठन होता है जो आपस में अन्त: क्रिया करते है। इस तन्त्र के मुख्य तत्व शीलगुण, संवेग, आदत, ज्ञानशक्ति, चित्तप्रकृति, चरित्र, अभिप्रेरक आदि हैं जो सभी मानसिक गुण हैं परन्तु इन सब का आधार शारीरिक अर्थात व्यक्ति के ग्रन्थीय प्रक्रियाएँ एवं तंत्रिकीय प्रक्रियाएँ है।
- गत्यात्मक संगठन- गत्यात्मक संगठन से तात्पर्य यह होता है कि मनोशारीरिक तन्त्र के भिन्न-भिन्न तत्व जैसे शीलगुण, आदत आदि एक-दूसरे से इस तरह संबंधित होकर संगठित है कि उन्हें एक-दूसरे से पूर्णत: अलग नहीं किया जा सकता है। इस संगठन में परिवर्तन सम्भव है।
- संगतता- व्यक्तित्व में व्यक्ति का व्यवहार एक समय से दूसरे समय में संगत होता है। संगतता का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति का व्यवहार दो भिन्न अवसरों पर भी लगभग एक समान होता है। व्यक्ति के व्यवहार में इसी संगतता के आधार पर उसमें अमुक शीलगुण होने का अनुमान लगाया जाता है।
- वातावरण में अपूर्व समायोजन का निर्धारण- प्रत्येक व्यक्ति में मनोशारीरिक गुणों का एक ऐसा गत्यात्मक संगठन पाया जाता है कि उसका व्यवहार वातावरण में अपने-अपने ढंग का अपूर्व होता है। वातावरण समान होने पर भी प्रत्येक व्यक्ति का व्यवहार, विचार, होने वाला संवेग आदि अपूर्व होता है। जिसके कारण उस वातावरण के साथ समायोजन करने का ढंग भी प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग होता है।
प्रमुख सिद्धांत-:
1. प्रकार उपागम/ अधिगम सिद्धांत
2. शीलगुण उपागम
3. मनोश्लेषिक सिद्धान्त
प्रकार उपागम –
प्रकार सिद्धान्त व्यक्तित्व का सबसे पुराना सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति को विभिन्न प्रकारों में बांटा जाता है और उसके आधार पर उसके शीलगुणों का वर्णन किया जाता है। मार्गन, किंग, विस्ज तथा स्कोपलर के अनुसार व्यक्तित्व के प्रकार से तात्पर्य, “व्यक्तियों के एक ऐसे वर्ग से होता है जिनके गुण एक-दूसरे से मिलते जुलते है। जैसे-अन्तर्मुखी एक प्रकार है और जिन व्यक्तियों को इसमें रखा जाता है उनमें कुछ सामान्य गुण जैसे-संकोचशीलता, सामाजिक कार्यो में अरूचि,लोगो से कम मिलना-जुलना पाया जाता है।”शीलगुण उपागम –
शीलगुण सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति की संरचना भिन्न – भिन्न प्रकार के शीलगुण से ठीक वैसी बनी होती है जैसे एक मकान की संरचना छोटी –छोटी ईंट से बनी होती है। शीलगुण का समान्य अर्थ होता है व्यक्ति के व्यवहारों का वर्णन। जैसे- सतर्क, सक्रिय और मंदित आदि। शीलगुण सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति का व्यवहार भिन्न-भिन्न शीलगुणों द्वारा नियन्त्रित होता है जो प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद रहते है। शीलगुण सिद्धान्त
ऑलपोर्ट का
नाम
शीलगुण
सिद्धान्त के
साथ मुख्य रूप
से
जुड़ा
है।
यही
कारण
है
कि
ऑलपोर्ट द्वारा
प्रतिपादित व्यक्तित्व के सिद्धान्त को
‘ऑलपोर्ट का
शीलगुण
सिद्धान्त’ कहा
जाता
है।
इन्होने शीलगुणों को
दो भागो में बाँटा है –
दो भागो में बाँटा है –
- सामान्य
शीलगुण – सामान्य शीलगुण से तात्पर्य वैसै शीलगुणों से होता
है जो किसी समाज संस्कृति के अधिकतर लोगों में पाया जाता है। - व्यक्तिगत
शीलगुण – यह अधिक विवरणात्मक
होता है तथा इससे
संभ्रान्ति भी कम होता है।
मनोश्लेषिक सिद्धान्त –
सिगमण्ड फ्रायड (1856 – 1939) ने करीब – करीब 40 साल के अपने नैदानिक अनुभवों के बाद व्यक्तित्व के जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है,उसे व्यक्तित्व का मनोवैश्लेषिक सिद्धान्त कहा जाता है। मनोवैश्लेषिक सिद्धान्त मानव प्रकृति या स्वभाव के बारे में कुछ मूल पूर्वकल्पनाओं पर आधारित है। इनमे से निम्नांकित प्रमुख है-- मानव व्यवहार वाह्यय कारकों द्वारा निर्धारित
होता है तथा ऐसे व्यवहार
अविवेकपूर्ण, अपरिवर्तनशील, समस्थितिक है। - मानव प्रकृति पूर्णता, शरीरगठनी तथा अप्रलक्षता जैसी पूर्व कल्पनाओं से
हल्के – फुल्के ढंग से प्रभावित होती है। - मानव प्रकृति आत्मनिष्ठ की पूर्वकल्पना से बहुत कम प्रभावित होती है।
इन पूर्व कल्पनाओं पर आधारित मनोवैश्लेषिक सिद्धान्त की व्याख्या
निम्नलिखित तीन मुख्य भागों मे बॉट कर की जाती है-
- व्यक्तित्व की संरचना
- व्यक्तित्व की गतिकी
- व्यक्तित्व की विकास
व्यक्तित्व की विशेषताएं
व्यक्तित्व की निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती है । 1.आत्मचेतना2. शारीरिक व मानसिक स्वास्थ
3.सामाजिकता
4. समायोजन शीलता
5.दृढ़ इच्छाशक्ति
6. उद्देश्य पूर्णता
7.विकास की निरंतरता
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारक-
व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं।1. वंशानुक्रम
2.वातावरण
योग के दृष्टिकोण : व्यक्तित्व की अवधारणा एवं अन्य भारतीय विचारो में व्यक्तित्व
का स्वरुप.
हर मनुष्य का अपना-अपना
व्यक्तित्व
है। वही मनुष्य की पहचान है।
कोटि-कोटि मनु्ष्यों की भीड़ में
भी वह अपने निराले
व्यक्तित्व के कारण पहचान
लिया जाएगा। यही उसकी विशेषता है। यही उसका व्यक्तित्व है। प्रकृति का यह नियम
है कि एक मनुष्य
की आकृति दूसरे से भिन्न है।
आकृति का यह जन्मजात
भेद आकृति तक ही सीमित
नहीं है; उसके स्वभाव, संस्कार और उसकी प्रवृत्तियों
में भी वही असमानता
रहती है। इस असमानता में ही सृष्टि का सौन्दर्य है। प्रकृति हर पल अपने को नये रूप में सजाती है। हम इस प्रतिपल होनेवाले परिवर्तन को उसी तरह नहीं देख सकते जिस तरह हम एक गुलाब के फूल में और दूसरे में कोई अन्तर नहीं कर सकते। परिचित वस्तुओं में ही हम इस भेद की पहचान आसानी से कर सकते हैं। परिचित वस्तुओं में ही हम इस भेद की पहचान आसानी से कर सकते हैं। यह हमारी दृष्टि का दोष है कि हमारी आंखें सूक्ष्म भेद को और प्रकृति के सूक्ष्म परिवर्तनों को नहीं परख पातीं।
मनुष्य-चरित्र को परखना भी बड़ा कठिन कार्य है, किन्तु असम्भव नहीं है। कठिन वह केवल इसलिए नहीं है कि उसमें विविध तत्त्वों का मिश्रण है बल्कि इसलिए भी है कि नित्य नई परिस्थितियों के आघात-प्रतिघात से वह बदलता रहता है। वह चेतन वस्तु है। परिवर्तन उसका स्वभाव है। प्रयोगशाला की परीक्षण नली में रखकर उसका विश्लेषण नहीं किया जा सकता। उसके विश्लेषण का प्रयत्न सदियों से हो रहा है। हजारों वर्ष पहले हमारे विचारकों ने उसका विश्लेषण किया था। आज के मनोवैज्ञानिक भी इसी में लगे हुए हैं। फिर भी यह नहीं कह सकते कि मनुष्य-चरित्र का कोई भी संतोषजनक विश्लेषण हो सका है।
हर बालक अनगढ़ पत्थर की तरह है जिसमें सुन्दर मूर्ति छिपी है, जिसे शिल्पी की आँख देख पाती है। वह उसे तराश कर सुन्दर मूर्ति में बदल सकता है। क्योंकि मूर्ति पहले से ही पत्थर में मौजूद होती है शिल्पी तो बस उस फालतू पत्थर को जिसमें मूर्ति ढकी होती है, एक तरफ कर देता है और सुन्दर मूर्ति प्रकट हो जाती है। माता-पिता शिक्षक और समाज बालक को इसी प्रकार सँवार कर खूबसूरत व्यक्तित्व प्रदान करते हैं।
व्यक्तित्व-विकास में वंशानुक्रम (Heredity) तथा परिवेश (Environment) दो प्रधान तत्त्व हैं। वंशानुक्रम व्यक्ति को जन्मजात शक्तियाँ प्रदान करता है। परिवेश उसे इन शक्तियों को सिद्धि के लिए सुविधाएँ प्रदान करता है। बालक के व्यक्तित्व पर सामाजिक परिवेश प्रबल प्रभाव डालता है। ज्यों-ज्यों बालक विकसित होता जाता है, वह उस समाज या समुदाय की शैली को आत्मसात् कर लेता है, जिसमें वह बड़ा होता है, व्यक्तित्व पर गहरी छाप छोड़ते हैं‘चरित्र’ शब्द मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रकट करता है। ‘अपने को पहचानो’ शब्द का वही अर्थ है जो ‘अपने चरित्र को पहचानो’ का है। उपनिषदों ने जब कहा था : ‘आत्मा वारे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः; नान्यतोऽस्ति विजानत:,’ तब इसी दुर्बोध मनुष्य-चरित्र को पहचानने की प्रेरणा की थी। यूनान के महान दार्शनिक सुकरात ने भी पुकार-पुकार कर यही कहा था: अपने को पहचानो !
विज्ञान ने
मनुष्य-शरीर को पहचानने में
बहुत
सफलता
पाई
है।
किन्तु
उसकी
आंतरिक
प्रयोगशाला अभी
तक
एक
गूढ़
रहस्य
बनी
हुई
है।
इस
दीवार
के
अन्दर
की
मशीनरी
किस
तरह
काम
करती
है,
इस
प्रश्न
का
उत्तर
अभी
तक
अस्पष्ट कुहरे
में
छिपा
हुआ
है।
जो
कुछ
हम
जानते
हैं,
वह
केवल
हमारी
बुद्धि
का
अनुमान
है।
प्रामाणिक रूप
से
हम
यह
नहीं
कह
सकते
कि
यही
सच
है;
इतना
ही
कहते
हैं
कि
इससे
अधिक
स्पष्ट
उत्तर
हमें
अपने
प्रश्न
का
नहीं
मिल
सका
है।
अपने
को
पहचानने की
इच्छा
होते
ही
हम
यह
जानने
की
कोशिश
करते
हैं
कि
हम
किन
बातों
में
अन्य
मनुष्यों से
भिन्न
है।
भेद
जानने
की
यह
खोज
हमें
पहले
यह
जानने
को
विवश
करती
है
कि
किन
बातों
में
हम
दूसरों
के
समान
हैं।
समानताओं का
ज्ञान
हुए
बिना
भिन्नता का
या
अपने
विशेष
चरित्र
का
ज्ञान
नहीं
हो
सकता।
बीज-रूप में ये प्रवृत्तियां मनुष्य के स्वभाव में सदा रहती है। फिर भी मनुष्य
इसका
गुलाम
नहीं
है।
अपनी
बुद्धि
से
वह
इन
प्रवृत्तियों की
ऐसी
व्यवस्था कर
लेता
है
कि
उसके
व्यक्तित्व को
उन्नत
बनाने
में
ये
प्रवृत्तियां सहायक
हो
सकें।
इस
व्यवस्था के
निर्माण में
ही
मनुष्य
का
चरित्र
बनता
है।
यही
चरित्र-निर्माण की भूमिका है।
अपनी
स्वाभाविक प्रवृत्तियों का
ऐसा
संकुचन
करना
कि
वे
उसकी
कार्य-शक्ति का दमन
न
करते
हुए
उसे
कल्याण
के
मार्ग
पर
चलाने
में
सहायक
हों,
यही
आदर्श
व्यवस्था है
और
यही
चरित्र-निर्माण की प्रस्तावना है।
इसी
व्यवस्था का
नाम
योग
है।
इसी
सन्तुलन को
हमारे
शास्त्रों ने
‘समत्व’
कहा
है।
यही
योग
है-‘समत्वं योग उच्यते’
यही
वह
योग
है
जिस
‘योग:
कर्मसु
कौशलम्’
कहा
है।
प्रवृत्तियों में
संतुलन
करने
का
यह
कौशल
ही
वह
कौशल
है
जो
जीवन
के
हर
कार्य
में
सफलता
देता
है।
इसी
समबुद्धि व्यक्ति के
लिए
गीता
में
कहा
है :
योगस्थ:
कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्यो:
समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
बुद्धियुक्तो
जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय
युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्।।
यह
संतुलन
मनुष्य
को
स्वयं
करना
होता
है।
इसीलिए
हम
कहते
हैं
कि
मनुष्य
अपने
भाग्य
का
स्वयं
स्वामी
है।
वह
अपना
चरित्र
स्वयं
बनाता
है।
चरित्र
किसी
को
उत्तराधिकार में
नहीं
मिलता।
अपने
माता-पिता से हम
कुछ
व्यावहारिक बात
सीख
सकते
हैं,
किन्तु
चरित्र
हम
अपना
स्वयं
बनाते
हैं।
कभी-कभी माता-पिता
और
पुत्र
के
चरित्र
में
समानता
नज़र
आती
हैं,
वह
भी
उत्तराधिकार में
नहीं,
बल्कि
परिस्थितियों-वश
पुत्र
में
आ
जाती
है।
परिस्थितियों के प्रति हमारी मानसिक प्रतिक्रिया
कोई
भी बालक अच्छे या बुरे चरित्र
के साथ पैदा नहीं होता। हां, वह अच्छी-बुरी
परिस्थितियों में अवश्य पैदा होता है, जो उसके चरित्र-निर्माण में भला-बुरा असर डालती हैं।
बच्चे को आत्मनिर्णय का अधिकार है
यह
प्रक्रिया बचपन से ही शुरू
होती है। जीवन के तीसरे वर्ष
से ही बालक अपना
चरित्र बनाना शुरू कर देता है।
सब बच्चे जुदा-जुदा परिस्थितियों में रहते हैं। उन परिस्थितियों के
प्रति मनोभाव बनाने में भिन्न-भिन्न चरित्रों वाले माता-पिता से बहुत कुछ
सीखते हैं। अपने अध्यापकों से या संगी-साथियों से भी सीखते
हैं। किन्तु जो कुछ वे
देखते हैं या सुनते हैं,
सभी कुछ ग्रहण नहीं कर सकते। वह
सब इतना परस्पर-विरोधी होता है कि उसे
ग्रहण करना सम्भव नहीं होता। ग्रहण करने से पूर्व उन्हें
चुनाव करना होता है। स्वयं निर्णय करना होता है कि कौन-से गुण ग्राह्य
हैं और कौन-से
त्याज्य। यही चुनाव का अधिकार बच्चे
को भी आत्मनिर्णय का
अधिकार देता है।
प्रवृत्तियों को रचनात्मक कार्य में लगाओ
किन्तु
आत्मनिर्णय की शक्ति का
प्रयोग तभी होगा, यदि हम आत्मा को
इस योग्य रखने का यत्न करते
रहेंगे कि वह निर्णय
कर सके। निर्णय के अधिकार का
प्रयोग तभी हो सकता है,
यदि उसके अधीन कार्य करनेवाली शक्तियां उसके वश में हों।
शासक अपने निर्णय का प्रयोग तभी
कर सकता है, यदि अपनी प्रजा उसके वश में हो।
इसी तरह यदि हमारी स्वाभाविक प्रवृत्तियां हमारे वश में होंगी,
तभी हम आत्मनिर्णय कर
सकेंगे।
स्थितप्रज्ञ कौन है?
इन
प्रवृत्तियों का संयम ही
चरित्र का आधार है।
संयम के बिना मनुष्य
शुद्ध विचार नहीं कर सकता, प्रज्ञावान
नहीं बन सकता। गीता
में कहा गया है कि इन्द्रियों
की प्रवृत्तियां जिसके वश में हों—उसी की प्रज्ञा प्रतिष्ठित
होती है। प्रज्ञा तो सभी मनुष्यों
में है। बुद्धि का वरदान मनुष्य-मात्र को प्राप्त है।
किंतु प्रतिष्ठितप्रज्ञ या स्थितप्रज्ञ वही
होगा जिसकी प्रवृत्तियां उसके वश में होंगी।
इस तरह की सबल प्रज्ञा
ही आत्म-निर्णय का अधिकार रखती
है। यही प्रज्ञा है जो परिस्थितियों
की दासता स्वीकार न करके मनुष्य
का चरित्र बनाती है। जिसकी बुद्धि स्वाभाविक प्रवृत्तियों, विषयवासनाओं को वश में
नहीं कर सकेगी, वह
कभी सच्चरित्र नहीं बन सकता।
बुद्धिपूर्वक संयम ही सच्चा संयम है
यह
बात स्मरण रखनी चाहिए कि हम बुद्धि
के बल पर ही
प्रवृत्तियों का संयम कर
सकते हैं। जीवन के समुद्र में
जब प्रवृत्तियों की आंधी आती
है तो केवल बुद्धि
के मस्तूल ही हमें पार
लगाते हैं। विषयों को मैंने आंधी
कहा है, इनमें आंधी का वेग है
और इनको काबू करना बड़ा कठिन है—इसीलिए यह
कहा है। अन्यथा इनमें आंधी की क्षणिकता नहीं
है।
संयम की कठिनाइयां
संयम
शब्द जितना साधारण हो गया है
उसे क्रियात्मक सफलता देना उतना ही कठिन काम
है। इस कठिनाई के
कारण हैं। सबसे मुख्य कारण यह है कि
जिन प्रवृत्तियों को हम संयत
करना चाहते हैं वे हमारी स्वाभाविक
प्रवृत्तियां है। उनका जन्म हमारे जन्म के साथ हुआ
है। हम उनमें अनायास
प्रवृत्त होते हैं। इसलिए वे बहुत सरल
है। इसके अतिरिक्त उनका अस्तित्व हमारे लिए आवश्यक भी है। उन
प्रवृत्तियों के बिना हम
कोई भी चेष्टा नहीं
कर सकते। उनके बिना हम निष्कर्म हो
जाएंगे; निष्कर्म ही नहीं, हम
असुरक्षित भी हो जाएंगे।
प्रत्येक स्वाभाविक प्रवृत्ति इसी सुरक्षा और प्रेरणा की
संदेशहर होती है। उदाहरण के लिए भय
की भावना को लीजिए। हम
भयभीत तभी होते हैं जब किसी प्रतिकूल
शक्तिशाली व्यक्ति या परिस्थिति से
युद्ध करने में अपने को असमर्थ पाते
हैं। उस समय भय
की भावना हृदय में जागती है और हमें
कैसे भी हो, भागकर
छिपकर या किसी भी
छल-बल द्वारा अपनी
रक्षा करने को प्रेरित करती
है। यदि हम इस तरह
बच निकलने का उपाय न
करें तो जान से
हाथ धो बैठें अथवा
किसी मुसीबत में पड़ जाएं। भय हमें आनेवाले
विनाश से सावधान करता
है। भय ही हमें
यह बतलाता है कि अब
यह रास्ता बदलकर नया रास्ता पकड़ो। हम कुछ देर
के लिए सहम जाते हैं। प्रत्युत्पन्नमति लोग नये रास्ते का अवलम्ब प्राप्त
करके भय के कारणों
से बच निकलते हैं।
उन्हें अपनी परिस्थिति की कठिनाइयों का
नया ज्ञान हो जाता है।
उन नई कठिनाइयों पर
शान्ति से विचार करके
नया समाधान सोच लेते हैं।
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